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________________ ४६६ जैन महाभारत फिर मैं न घर की रहूँगी न घाट की, शिशपाल के साथ जाने के लिए रुक्म बाध्य करेगा, मैं उसके साथ कदापि जाना नहीं चाहती क्योंकि मैं अपने हृदय को दूसरे के लिए एक बार समर्पित कर चुकी हूं।" इन चिन्ता से उसका मुख म्लान हो गया। अन्त में उसने श्री कृष्ण से निवेदन किया। उन्होंने उसे सात्वना दी और उसकी शका निवार्थ एक तुणीर से अर्द्ध चन्द्र बाण निकाला और उसी एक ही वाण से ताल वृक्ष की एक श्रेणीको कमल नाल की भांति काटकर उसे धराशायी बना दिया। - पश्चात् अंगूठी से हीरा निकाला और उसे रुक्मणि के सामने ही चुटकी से पीस डाला । इस अभूतपूर्व बल प्रदर्शन को देखकर रुक्मणिको पूर्ण विश्वास हो गया कि उनमे शत्रु दमनकीपूर्ण क्षमता है। __उधर उसी समय नारद मुनि भी प्रगट हुए उन्होंने कहा-अच्छा तो रुक्मणि अपने स्वामी के पास पहुच गई । अव वह अपनी सुसराल जा रही है। बड़ी शुभ घड़ी है।" फिर श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए बोले-"तो महाराज | चोरों की भॉति अपनी सहधर्मिणी को ले जाते तो आपको शोभा नहीं देता। विदर्भ देशे की राजकन्या इस प्रकार ले जाई जाय और वह भी श्रीकृष्ण वीर के द्वारा ? आश्चय है।" ___श्रीकृष्ण नारद जी का आशय समझ गए और उन्होंने उसी समय पॉचजन्य का विजय घोष किया। तब रथ बढ़ाया और वे १बलराम के नेतृत्व में खड़ी सेना मे आ मिले । पाँच जन्य की ध्वनि होनी थी कि चारों ओर समाचार दौड़ गया कि रुक्मणि को श्रीकृष्ण ले गए। हाथी सवार, अश्वर सवार, रथ सवार और पैदल, सभी प्रकार की सेनाएं आपस में भिड़ गई। भयंकर युद्ध होने लगा । बाणों के प्रहार से हाथी चिंघाड़ने लगते, अश्व घायल होकर पड़ते, बी, खड्ग, नेजे आदि शस्त्र आपस में १ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है कि श्री कृष्ण और बलराम ये दोनो ही रुक्मणि को लेने के लिए आये थे, और रुक्म और शिशुपाल की सेना को प्रात देख श्री कृष्ण ने बलराम से कहा कि भाई ! तुम रुक्मणि को लेकर आग चलो और शत्रुओ को पराजित करके प्राता है, किन्तु बलभद्र न माने, उन्होने श्री कृष्ण को रुक्मणि को साय देकर आगे भेज दिया और स्वय उनसे युद्ध करने लगे। त्रि०
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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