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________________ जैन महाभारत प्रकार की अहकार पूर्ण बाते वह किया करता । कभी कभी राज दरबार में इसी प्रकार की डींगें हांकने लगता, उसके सगी साथी, कर्मचारी उसकी हां में हां मिलाते और अपनी चापलूमी से उस के अहकार में वृद्धि कर देते । वे उसे जगदीश्वर, जगत पिता, भगवान् , ईश्वर प्रभु, अन्नदाता, प्राणदाता, दुखियों के सहारे मानव समाज के रखवारे, वसुन्धरा नरेश, मृत्यु लोक के स्वामी और महाबली के नाम से पुकारते। उसे अपना अहकार सत्य पर आवारित प्रतीत होने लगा, उसे अपनी कल्पनाएं और वास्तविकता के रूप मे अनुभव होने लगी। फिर क्या था वह सभी से अपने आप को भगवान कहलाने का प्रयत्न करता। इधर एक बार कंस भगवान अरिष्टनेमि के जन्म महोत्सव में भाग लेने के लिये शौरिपुर में आ रहा था। वहां पर उसने उस कन्या को देखा जिस को कि पहले उस ने नाक काट कर छोड़ दिया था, कन्या के देखते ही कस को अतिमुक्त मुनि के उन वाक्यों का स्मरण हो आया कि "देवकी का सातवाँ गर्भ कंस और जरासंध की मृत्यु का कारण होगा।" इस स्मरण से पहले तो उसे कुछ मुनि वाक्य पर आश्चर्य हुआ किन्तु बाद मे विचार करने लगा कि आज मुनि की बात प्रत्यक्ष रूप मे असत्य सिद्ध हो रही है। मैंने तो पहले ही जीवयशा से कहा था कि इन मुनि आदि की बातों पर विश्वास नहीं किया करते । खैर जो कुछ हुआ हुआ, अब तो इस प्रश्न के किसी निश्चय पर पहुँचना ही चाहिये। इस प्रकार के विचारों में डूबा-डूबा ही वह मथुरा को लौट गया। मथुरा में एक दिन कस सिंहासन पर विराजमान था, दरबार में उसके परामर्शदाता, मन्त्री और अन्य कर्मचारी उपस्थित थे। इतनी ही देर में कुछ ज्योतिषविद्या के ज्ञाता पण्डित दरबार मे आये। उन्हे आसन दे कर कस ने कहा-"पण्डित जन | आप तो ज्योतिष विद्या से निपुण है। अन्य विद्याओं के भी ज्ञाता है, आप शास्त्रो पर भी विश्वास रखते है, यह तो बताइये कि ये मुनि जो भविष्य वाणी करते हैं उनका क्या वास्तविकता से भी कोई सम्बन्ध होता है।' नैमित्यिकों ने कहा-"राजन् । मुनिजन जो कहते हैं वह सत्य पूर्ण ही होता है।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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