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________________ शिष्य परीक्षा ४०३ गया, उसे दुर्योधन की नीति पसंद नहीं आ रही थी। उस का बस चलता तो वह दुर्योधन को वहाँ से बाहर निकाल देती। कोलाहल सुन कर चक्षुहीन धृतराष्ट्र ने पूछा-विदुर । यह कैसा कोलाहल है ? ?" __"कोलाहल का कारण यह है कि दुर्योधन ने एक आग सुलगा दी है।" विदुर बोले । "कैसी आग ?' विस्मित होकर धृतराष्ट्र ने प्रश्न किया। "उसने कर्ण को अग देश का राज्य देकर राजा बना दिया है" विदुर कहने लगे, उनके शब्दों में कुछ कड़वाहट थी। अच्छा ?" 'और कर्ण ने प्रतिज्ञा की है कि तुमने मुझ ककर को हीरा बनाया है इस लिए जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं, तब तक तुम्हारा मित्र रहूंगा, और चाहे चन्द्र श्राग बरसाने लगे, हिमाचल रजकण हो जाय, तब भी मैं तुम्हारी मित्रता का परित्याग नहीं करू गा', विदुर कहते गए। "अच्छा " "दुर्योधन ने कर्ण को राज्य दिया है ताकि वह अजुन से युद्ध करने योग्य बन जाय । उसने कर्ण की बड़ी प्रशसा की है, राज्य और प्रशसाओं से वह इतना अभिमान में आ गया है कि अब वह अर्जुन से युद्ध करने पर तुला हुआ है । दुर्योधन उसकी पीठ थपथपा रहा है" विदुर ने कहा। ""कुन्ती सती है उसका पुत्र अर्जुन भी श्रेष्ठ है। दुष्ट दुर्योधन सूत पुत्र के साथ उसका युद्ध करवाना चाहता है ? अच्छा दुर्योधन को मेरे पास बुलाओ।" धृतराष्ट्र ने दुखित होकर कहा। ___उसी समय द्रोणाचार्य मंच पर खड़े हो गए और बोले-"आप लोग सभी कोलाहल कर रहे है, परन्तु सूर्य को भी देखते हो।' चारों ओर से आवाजे आई , “सुनो, सुनो आचार्य जी की बात सुनो" वे सूर्य की ओर सकेत कर रहे हैं। सभी चुप हो गए और द्रोणाचार्य की बात ध्यान पूर्वक सुनने लगे, वे कह रहे थे-'हम प्रत्येक कार्य सूर्य की साक्षी से करते हैं। सूर्य की साक्षी के बिना न परीक्षा हो सकती है और न युद्ध ही हो सकता है, वह देखो सूर्य डूब रहा है। द्रोणाचार्य की बात सुन कर सभी सूर्य की ओर देखने लगे। --
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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