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________________ ३५२ जैन महाभारत N इतनी विनती है कि राज्य सिंहासन पर बैठकर अपने इस मित्र को भूल मत जाना । बोलो, भूलोगे तो नहीं ?" द्रपद द्रोण की बात सुनकर रो दिए, उनके शब्द कठ मे हो अटक कर रह जाते, बड़े प्रयत्न के पश्चात वे बोल पाए "द्रोण तुम्हारे मन में यह बात आई ही क्यों ? मैंने तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा कि तुम में और मुझ में किसी प्रकार का भी कोई अन्तर है। मैं तुम्हे भूल जाऊ , यह तो कभी हो ही नहीं सकता तुम विश्वास रखो कि मैं राजमहल में जाकर भी तुम्हारे लिए तड़फता रहूंगा। तुम्हारा प्रेम मुझे सदा याद आया करेगा रही राज्य सिंहासन की बात । सो मित्र याद रखो कि जब मैं सिंहासन पर बैठूगा तो तुम्हें अपने पास ही बुला लूगा और आधा राज्य तुम्हें देकर अपने ही अनुरूप बनालू गा। तभी मुझे चैन आयेगा। द्रपद ! मुझ जैसे अकिंचन ब्राह्मण पुत्र के लिए तुम्हारे स्नेह का मूल्य ही बहुत है, द्रोण कहने लगे, मैं तुम्हारे सद्भाव के लिए कृतज्ञ हूँ। परन्तु राज्य देने की प्रतिज्ञा मत करो। हम ब्राह्मण है, तुम्हारे राज्य के भूखे नहीं हैं। राज्य मिला तो क्या, न मिला तो क्या? हमारे लिए यही बहुत हैं कि सिंहासन पर बैठ कर स्मरण रखे। यही बहुत है कि मैं यह कह सकूगा कि राजा द्र पद मेरे मित्र है, यही गर्व बहुत है । यह ठीक है कि मेरे प्रति तुम्हारा भी उतना ही स्नेह है जितना मेरा तुम्हारे प्रति, पर स्नेह के आवेश में कोई दुर्लभ प्रतिज्ञा करना ठीक नहीं है" ___"नहीं मित्र ! मैंने आवेश में ही यह प्रतिज्ञा नहीं की, द्र पद ने उभर दिया, मैं तो कितने ही दिनों से यह सोचा करता था, तुम्हे आधा राज्य देकर मुझे जितनी प्रसन्नता होगी तुम कदाचित उसका अनुमान न लगा पाओ।" । __ "बन्धु ! प्रतिज्ञा करना सरल है उसे निभाना सरल नहीं है, मैं तुम्हे ऐसी परीक्षा में नहीं डालना चाहता कि उसके परिणाम की चिन्ता में मेरा हृदय दुविधा से धड़कता रहे" द्रोण ने बात समझाने की चेष्टा की । पर द्र पद ने उनकी बात स्वीकार न की। कहने लगा-"तुम्हारा 'और मेरा सम्बन्ध पथिकों के परिचय जैसा उथला नहीं । जिनके न होने में देरी लगती है और न बिगढ़ने में ही । तुम्हारा स्थान तो मेरे हदय में है जो मेरे सम्पूर्ण हृदय पर अधिकार जमाए है; उसे आधा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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