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________________ कुन्ती और महाराज पाण्डू हत्या तो महा पाप है। -हां महापाप तो है किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य कोई राम्ना मी तो नहीं । मैं किसी दूसरे को भी तो नहीं स्वीकार कर सकती श्रीर पाण्ड बिन पत्र जीवन भी नहीं व्यतीत नहीं कर सकता । फिर मैं क्या करु ?-कुछ देर बाद वह सोचने लगी क्या पाएह भी मेरे लिए इसी प्रकार व्याकुल होंगे ? उल्फत का जब मजा है जब दोनों हो बेकरार । दोनो तरफ ही आग बराबर लगी हुई ॥ कुन्ती का मन मुलग रहा था, उसके नेत्रों से गगा जमुना वह रही थी।___'अनायाम ही निक्ट में एक व्यक्ति नजर आया। चन्द्रमा समान कुन्ती उम सूर्य समान प्रताप युक्त मुख कमल को देखकर आश्चर्य चकित रह गई। अश्रुधार न जाने कहा लुप्त हो गई। वह श्रावं फाड पार कर देखने लगा। वह उसकी सुन्दरता देख कर विचारने लगी कि यह कोई देवता है या कोई और ? पर और कौन ? इसका तो ललाटी इतना सुन्दर है मानो अष्टमी का प्राधा चन्द्र ही अंकित हो गया है। इसके सिर पर यह केश-पास है या फाम अग्नि से निकली हुई धूम्र की शिखा ? इसके सुन्दर वक्षस्थल को देखकर मुझे तो एमा प्रतीत होता है कि इसके वन स्थल में हार के छल से जय लक्ष्मी ने ही नियाम कर लिया है। इसी लिए तो लोग इस देव के हृदय में स्थान पा कर लक्ष्मी पति हो जाते होंगे। इसी को दो मुजाए ता कामदेव की उन गुजपाशों के समान ही पतीत होती है जो नारी को बाधने के लिए होती है। ___ दूसरी और रेचर द्वारा दी गई अंगूठी के सहारे अनायाम वहा पपने पाले पारह भी उसे देख कर समझने लगे कि वह नो पोर्ट फिगर देवागना ही है जिसके मुख पर चन्द्रमा की यामा विद्यमान १, पचासौर नितम्या पे भार ने जिननी कमर लचक रसीद पर मट पं. उन्मादम विलक्षण उन्मादिनीसी प्रतीत होनी है । या लारयमयी परम सुन्दरी किसर देवागना के अनिरिस हो ही पान मरती है। "माप पान हैं और इस नारी उद्यान मे शाप ने द छाये। बहाना पुरयों का पाना वर्जित है" एन्ता ने माहन घर पर ही है। लिया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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