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________________ - --- arrrram कुन्ती और महाराज पाण्ड उसकी लेवा महायता में लग गए । चेचर ने सरेन ने अपने पास बची जड़ी बूटियों को बताया । पाएह ने उन्हें उचित विधि पूर्वक लगाया जिमने उसकी पीडा शान्त हुई । जब वह ठीक हुन्या तो पूछने लगे-"यदि श्रापको आपत्ति न हो, तो क्या में जान सकता हू कि प्राप को किमने घायल किया ?" ___"भद्र । एक व्यक्ति मेरी स्त्री को ले उडा। मैंने उसका पीछा किया जिसके परिणाम स्वरूप मुझे यह घाव आये। किन्तु वह उसे लेकर भाग जाने में सफल हुआ।-आप ने अचानक पहुच कर मेरा जो उपकार किया है, यदि अपने चर्म के जूते भी आप को पहनाऊं तो भी आपके ऋण से उत्सग नहीं हो सकता" ____ "नहीं, श्रीमन । मेने अपना कर्तव्य निभाया है। श्राप मेरी लेवा मे बम्ब हो गए । इसका मुझे अपार हर्प है" पाण्ड नृप वोले । पापको कष्ट तो होगा ही। पर क्या करू मैं अभी अधिक चल फिर नहीं सकता। मेरी एक गठी इमी झझट मे खा गई है। आप इसे तलाश करादें तो श्रापका और भी रहमान हो। मैं प्रापका गुग्ण जीवन भर नहीं भूलू गा" खेचर की प्रार्थना पर व प्रगूठी खोजने लगे। कुछ ही देर पश्चान व एक 'प्रगृठी लिए वापिस पाये "देखिये यही तो नहीं है आपकी अगृठी" पेचर देखकर बोला "जी हां, यही है । बारम्बार धन्यवाद । ' पर यह तो इतनी मृल्यवान प्रतीत नहीं होती जिसके लिए श्राप चिन्तित थे। नप ने कहा। "भद्र | प्राप नहीं जानते । या अगूठी धातु के सम्बन्ध में तो अधिर मूल्यवान चापि नहीं है । पर अपने गुण के कारण यह बात ती मृन्यवान है। मेचर बोला "क्या गुग , इम 'नगृठी को पहन कर व्यक्ति जदा चार दरों ना भर में पर मरता है भार एमठी रट्ने बर दृमर को दिवाई नहीं हंगा। वेचर ने रहा तो पाएट की प्राचार्य या । पर ही वं मन ! पाप ह अन्ठी नो में श्राप या जीवन भर एनार ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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