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________________ हरि वश की उत्पत्ति mmmmmmmm विरह वदना के कारण अत्यन्त दयनीय हो उठी । उनका मन स्नान, ध्यान, खान-पान आदि सभी दैनिक क्रिया-कलापों से विरत हो गया। महाराज को इस प्रकार अनमना और उदास देख सुमति नामक अत्यन्त चतुर मत्री ने हाथ जोड विनय करते हुए पूछा कि___ "हे प्रभो । आज आप इस प्रकार उदास क्यो प्रतीत होते है आप की इस आकस्मिक व्याकुलता का क्या कारण है, आपका यह एक छत्रराज्य है, प्रजा भी आपमे अतिशय अनुरक्त है, आपने अपने अनुपम प्रेम से सभी रानियो के हृदयों को जीत लिया है, इसलिए वे भी आपकी पूर्ण प्रणयिनी हैं। दानादि सब धार्मिक कार्यों का सम्पादन भी आप यथाविधि अप्रमादी होकर करते है, अखड भूमण्डल के समस्त राजा महाराजाओ पर आप ही का तेज छाया हुआ है इस प्रकार धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थ त्रय के सम्पादन में आप सदा तत्पर रहते हैं। आपको किसी प्रकार का कोई प्रभाव तो दिखाई नहीं देता | इस विश्वप्रपच मे ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो कामना करते ही आपके लिए प्राप्य या सुलभ न हो। फिर आप आज इस प्रकार क्यों उदास दिखाई देते हैं। अपने हृदय की गूढ से गूढ मर्म वेदना को भी सदा अपने मन में छिपाये नहीं रखा जा सकता, उसे व्यक्त कर देने से मन हलका हा जाता है, इसलिए हे नाथ । आज्ञा दीजिए कि यह सेवक आपकी इस उदासी का निवारण करने में कैसे सहायक सिद्ध हो सकता है। यह शरीर यदि आपके कुछ भी काम आसका तो मैं अपने जीवन को सार्थक समझू गा और प्राण-पण से आपकी प्रसन्नता के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करू गा । कृपा कीजिए और अपने हृदय की बात बता दीजिए ताकि आपकी चिन्ता-निवृत्ति के लिए यथोचित उपाय किया जाय । ___ मत्री के इस प्रकार मधुर विचारो को सुनकर सुमुख ने कहा मित्रवर । तुमसे मेरे हृदय की कोई बात छिपी हुई नहीं, राजकार्यो में तुम मेरे मत्री हो पर अतरग वातों में मेरे प्राणों के भी प्राण सुहृद्वर हो। अब सब कुछ जानते हुए भी अव अनजान बन रहे हो। तुम्हे ता ज्ञात ही है कि कल वन-विहार के समय एक परम सुन्दरी ने अपने कटाक्ष बाणों से मेरे हृदय को बरबस वेध दिया, उसके हाव भावों से प्रतीत होता था कि वह भी मेरे प्रति वैसी ही अनुरक्त है। यद्यपि यह कुल मर्यादा व शास्त्र नियम के विरुद्ध है पर क्या करू इस समय मेरा मन अपने
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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