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________________ जैन महाभारत २६६ 1 कली को मूक वाणी को न समझ सके । वे प्रशंसापूर्ण नेत्रो से देखते रहे । रंग बिरंगे पुष्पों को देखते हुए वे आगे बढे । अनायास ही उन्हे एक अप्सरा सी दिखाई दी । वे उसे देखते ही ठिठक गए। उन्होंने नजरे गड़ा दीं । अप्सरा की आकृति मुस्करा रही थी उसके अधर पल्लव मुस्कान से तनिक से खिले थे । उसके कपोलो पर गुलावी रंग, गुलाब पुष्पो के सौंदर्य को चुनौती दे रहे थे। उसके अधरों की लालिमा कमल के रूप को चुनोती दे रही थी । उसके घने काले केश रात्रि की घोर कालिमा को भी मात कर रहे थे । वे काले रेशम की भांति चमक रहे थे । उसकी साड़ी रग बिरंगे पुष्पों के सौदर्य को अपने दामन मे छिपाये थी और उसके उन्नत वक्षस्थल गर्वित सेवों से प्रतीत होते थे जो रेशमीन कपड़े मे से झाँक रहे थे । वह खड़ी थी अचल | एक बार पाण्डू नृप ने देखा और सभ्यता के नाते गर्दन झुका ली । फिर पुन. उसे एक टक निहारने की आकांक्षा उनके मन मे बलवती हो गई । अनायास ही दृष्टि उस ओर गई, और उस पर जा टिकी । वह फिर भी मुस्करा रही थी । पाण्डू नृप चाहते हुए भी उस की ओर से दृष्टि न हटा सके । क्योंकि उनका मन तो उस अप्सरा की आकृति पर मुग्ध हो गया था । उनकी दृष्टि को उसके रूप ने बन्दी बना लिया था, अपने रूप की उसने व खलाएं पहना दी थीं उसके नेत्रो को । चे सुधखो कर उसके रूप पर मोहित हो गए थे । सारा उद्यान उन्हें उस बुध एक आकृति के सामने हेच प्रतीत होने लगा । जो रूप उस में था वह सहस्रों खिले और अधखिले पुष्पों मे भी नही था । वे नेत्र अजुलि से उस का रूप पान कर रहे थे। कितनी ही देर तक वे उसे देखते रहे । पर वह मुस्कराती ही रही। मुस्कराती रही, न मुस्कान अट्टहास में परिवर्तित हुई और न अघरों से लुप्त ही हुई । उसकी पलके जैसे खुली थीं वैसे खुली ही रही । "ओह ! यह तो पलक भी नहीं झपकती ।" इस बात पर जब उनका ध्यान गया वे चकित रह गए। घण्टो कौन बिना पलक झपकाए इस प्रकार एकाग्रचित्त, चित्र लिखित सा खड़ा रह सकता है ? उन्हे आशा हुई। कहीं यह मूर्ति तो नहीं। हां मूर्ति ही होगी । निर्जीव मूर्ति । वे आगे बढ़े तो देखा कि उस अप्सरा आकृति के चरणों में एक व्यक्ति बैठा है, उनकी ओर पीठ किए। उसके हाथ में थी तूलिका और कुछ पात्र साथ में रखे थे । यह तो चित्रकार है । 1
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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