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________________ *तेरहवां परिच्छेद कुन्ती और महाराज पाण्डू पाण्डू नृप भ्रमणार्थ उद्यान की ओर जा निकले। प्राकृतिक सौन्दर्य किसको अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता । पाण्डू तो ठहरे रूप और कला के अनुरागी । वे उद्यान में उपस्थित सौदर्य और प्रकृति की अनुपम एव अद्भुत कला को देखते देखते मुग्ध हो गए। चारों ओर फैले सुगन्ध और नयनाभिराम मादक सौदर्य ने पाण्डू के चित्त को हर लिया । वे इस अद्भुत कला को देख कर प्रशसा पूर्ण नेत्रो से मूक भाषा में मौन खड़े पुष्पों और पत्तों से बाते करने लगे । वे पूछने लगे कि हे पुष्पो ? तुम मौन हो, किसी को कुछ कहते सुनते भी नही, निर्जीव से निश्चित अविकल खड़े हो, पर खिलखिला कर इसे जा रहे हो। तुम्हारा यह अट्टहास आखिर किस लिए, किस पर बिखर रहा है ? वह कौन सी बात है जिसने तुम्हें अट्टहास करने पर विवश कर दिया है। हंसना आरम्भ किया तो तुम हंसते ही चले गए और हसते ही रहोगे, तुम्हारा जीवन खील-खील करके बिखर जायेगा और तुम मुस्कान के लिये ही ससार से चले जाओगे । एक समय तक तुम मौन रहते हो, फिर हस पड़ते हो, इतना दीर्घ अट्टहास कैसे बन पड़ता है | तनिक इसका रहस्य हमें भी तो बताओ । पर पाण्डू नृप के प्रश्न को सुन कर वे हसते रहे । क्योंकि उनका कर्म ही हसना है, उनका धर्म ही हंसना है। लोग उन्हें बेदर्दी से तोड़ लेते हैं, फिर भी उनकी मुस्कान लुप्त नहीं होती, वे मुस्कराते मुस्कराते ही मुझ जाते हैं । उनकी इस अज्ञात हसी, अज्ञात सुख पर किसे इर्ष्या न होगी । राजा पाण्डू सोचने लगे " मानव दुनिया भर की सम्पत्ति और वैभव को एकत्रित करके भी इतना सुखी नहीं हो पाता, जितने सुखी हैं यह } C
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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