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________________ २७८ जैन महाभारत 'महाराज की दया है तो अकुशलता का प्रश्न ही कहां है ?" सभी बोले। महाराज के अधरों पर मुस्कान खेल गई।। "महाराज ! महल की चहार दीवारी में तो आप का मन सुमन कुम्हला सा गया होगा, कहाँ आप बन उद्यानों के भ्रमण के शौकीन। कहाँ यह बन्दी समान जीवन" अनुचरों ने कहा____ "हां, हम भी कहीं भ्रमरणार्थ जाने के इच्छुक हैं। पर कहाँ जायें ?" शान्तनु बोले । “महाराज | हस्तिनापुर से कुछ दूर नदी तट पर विशाल उद्यान है, बडा ही सुरम्य स्थान है, अनुचर कहने लगे, उधर चलें तो प्राकृतिक सौन्दर्य भी देख सकेंगे, आप का मन भी बहलेगा, और इच्छा हो तो शिकार भी अच्छा मिल सकेगा, बहुतेरे पशु पक्षी वहाँ मिलते हैं। आप की इच्छा के अनुरूप ही वहाँ सब कुछ है।" "नहीं भाई । हम शिकार नहीं खेलना चाहते । इस एक बात से मेरा गृहस्थ जीवन ही कंटक पूर्ण होता जा रहा है।" शान्तनु ने कहा। "महाराज | शिकार खेलना तो राजाओं की प्रिय क्रीड़ा है । इसे त्याग कर क्या मक्खी मारा कीजिएगा" एक.अनुचर बोला। "महाराज | हर अच्छी वस्तु, अच्छे कार्य और अच्छी क्रीड़ा को बुरा बताने वाले संसार में मिल ही जाते हैं। कहीं कौवों के कहने से हंस अपना स्वभाव थोड़े ही बदल देता है ?" दूसरा बोल पड़ा। और फिर तीसरे ने भी कहा "महाराज! इस प्रकार हिंसा और अहिंसा का आप विचार करेंगे तो आप अपने राज्य काज भी नहीं निभा सकेंगे । यह तो मुनियो के चोचले हैं, जिन्हें न कुछ करना है न धरना । आप तो राजा हैं। राजा तो भगवान् का दूसरा रूप होता है।' इसी प्रकार सभी अनुचर पीछे लग गए और महाराज शान्तनु उन के साथ हो लिए । उद्यान में पहुंचे। पहले प्राकृतिक सुरम्य दृश्यों को देखते हुए घूमते रहे । अनायास ही सामने से एक उछलता हुआ मृग आ निकला। "यह दुष्ट समझता है इधर कोई तीरन्दाजी में निपुण व्यक्ति
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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