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________________ जैन महाभारत जन्हू ने कुछ देर तक विचार किया, उसके लिए इस से अधिक प्रसन्नता की और कौन सी बात हो सकती थी । "आप की ओर से कुछ उत्तर नहीं मिला ?" शान्तनु ने कुछ देर तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त कहा । २७४ "मेरी इच्छा का जहाँ तक प्रश्न है, आपको अपनी कन्या सौंप कर मै निश्चिन्त हो सकता हूँ । परन्तु महाराज बीच ही मे बोल पडे "परन्तु "क्या ? कहिए ।" "परन्तु इसके लिये गंगा की स्वीकृति भी आवश्यक है" जन्हू विद्याधर बोला । "तो फिर आप उससे परामर्श कर लीजिए" शान्तनु बोले । थोड़ी ही देर के उपरान्त गगा उनके सामने थी । उसने महाराज को करबद्ध प्रणाम किया । कहने लगी " महाराज की दासी बनना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी । पर जब बाजार से दो पैसे की इंडिया को खरीदते समय भी उसे ठोकबजा कर देख लेते हैं, तो यह तो जीवन साथी चुनने का प्रश्न है, एक गम्भीर एव महत्वपूर्ण प्रश्न है । आप भली प्रकार सोच समझ लीजिए । और मुझे भी यह अनुभव करने दीजिए कि आप मेरे रूप को ही नहीं चाहते, वरन मुझे हृदय से स्वीकार कर रहे हैं ।" "देवि । मैं क्षत्रिय हूं। अपने वचन को प्रत्येक दशा में निभाने वाला क्षत्रिय । मैं तुम्हे हार्दिक रूप से माँग रहा हूं” शान्तनु बोले । "आपके महल में आपकी अन्य रानियाँ भी तो होंगी " गङ्गा ने प्रश्न किया । "हॉ, एक रानी है, सबकी ।" " और उससे कोई पुत्र भी होगा ?" "एक कुमार है, पारासर" शान्तनु बोले । " फिर मैं आपको वर रूप में स्वीकार करके कैसे प्रसन्न रह सकती हूं। मेरी सन्तान तो पारासर की इच्छा की दास रहेगी" गङ्गा बोली । "नहीं, मैं तुम्हें पटरानी बनाऊँगा और तुम्हारी सन्तान को ही राज्य सिंहासन मिलेगा। पारासर तो राज्यकाज में रुचि ही नहीं लेता
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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