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________________ २६५ नेमिनाथ का जन्म कार्तिक मास की कृष्णा द्वादश की रात्रि थी। शौरीपुर नरेश समुद्रविजय की महारानी सेवा देवी जी अपने शयन कक्ष में पलग पर निद्रामग्न थीं चारों ओर सुगन्धी फैल रही थी। पुष्प मालाओं से कमरा सजा हुआ था। बारीक रंग बिरगे परदे होले होले पवन के सहारे हिल रहे थे। महारानी सुख स्वप्न देखने लगीं। उन्होंने स्वप्नों में हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, फूलमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वज, कुम्भ, पदम सरोवर क्षीर सागर, विमान, रत्न पुज, निधूम, अग्नि देखी। विचित्र स्वप्न के भग होते ही उनकी आंखे खुली तो भौर हो चुकी थी, पूर्व दिशा लाल हो रही थी। वह तुरन्त उठी, दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर समुद्रविजय के पास गई और उन्हे अपने स्वप्नों का वृत्तान्त कह सुनाया अन्त में बोली “भौर के समय आज इन अद्भुत स्वप्नी को देख कर मुझे न जाने क्यों स्वाभाविक प्रसन्नता हो रही है, जैसे मुझे कल्प वृक्ष मिल गया हो । आखिर इसका क्या कारण है ? आप गुणवान हैं, कुछ बताइये तो " समुद्रगुप्त ने रानी के स्वप्नों का वृत्तान्त सुनकर कहा-"जहा तक मुझे याद पड़ता है, भगवान ऋषभवेद की पूज्य माता जी ने भी ठीक यही स्वप्न देखे थे, जिनका फल हुआ था कि वह भगवान की माता बनी थी । क्या वास्तव में तुमने भी यही स्वप्न देखे हैं ?" 'हाँ, हॉ, मैं अक्षरश. सत्य कह रही हूँ।" भगवान ऋषभदेव की माता के स्वप्नों की बात सुन कर आश्चर्य से महारानी ने कहा। समुद्र विजय पुलकित हो गया। कहने लगा, महारानी । तुम धन्य हो । यह स्वप्न बता रहे हैं कि हमारे घर तीर्थङ्कर जन्म लेगे। अहो भाग्य कि हमें एक पुण्यात्मा के पालन पोषण का सौभाग्य प्राप्त होगा । तभी । खुशिया मनाओ, गाओ, मुक्त हस्त से दान दो । तुम्हारा नाम ससार में अमर होने वाला है, तुम भगवान की मॉ बनोगी।" नृप हर्षातिरेक में कहता गया, और रानी के कानों मे जैसे उसने अमृत घोल दिया, वह गदगद हो गई, पर उसी क्षण वह बोल उठीकहीं हमें कोई भूल न हो जाए। आप मुनिगण से तो पूछिए।" "हाँ, ठीक है । तुम ठीक कहती हो, मुनिगण से पूछ लिया जाये।" प्रफुल्लित नप का हृदन बेकाबू हो गया था, हर्ष के मारे ।- वह तुरन्त
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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