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________________ ANVvvv राहिणी स्वयवर २३६ -ommmmmm mmmmmmmmmwww समक्ष युद्धार्थ प्रस्तुत देखा तो वे अपने सारथी विद्याधर दधिमुख से कहने लगे कि देखो यह मेरे बड़े भाई महाराज समुद्र विजय है । इनके साथ युद्ध करते समय रथ इस प्रकार सावधानी से चलाना चाहिए कि इन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो | अब ही इस अवसर पर ही तुम्हारी रथ-सचालन निपुणता की परीक्षा होगी। कुमार के ऐसे वचन सुन विद्यावर दधिमुख ने वसुदेव का रथ धीरे-धीरे महाराज समुद्रविजय के सामने बढाना शुरू किया। __वसुदेव को इस प्रकार वीर वेष में आपने सामने युद्धार्थ डटा हुआ देख समुद्रविजय अपने सारथी से कहने लगे कि-भाई आज इस सुभट को अपने समक्ष देख न जाने क्यों शत्रुत्व की भावना की अपेक्षा आत्मीयता की स्नेहमयी भावना मेरे हृदय में बरवस जागृत हो रही है । इच्छा होती है कि इस पर शस्त्र न चला कर इसे अपने हृदय से लगा लू , पर वीर शत्रुओं का हृदय भी बडा ही कठोर होता है, न चाहते हुए भी अपने को ललकाराने वाले प्रतिपक्षी पर शस्त्र चलाने के लिए उद्यत होना ही पड़ता है । इधर मेरी दाहिनी ऑख और भुजा भी फडक रही है। इससे तो सूचित होता है कि अपने किसी बिछुडे हुए प्रिय बन्धु का समागम होगा। किन्तु यहाँ तो सामने यही विरोधी युद्ध के लिए डटा हुआ है। ऐसी परिस्थिति में भला किसी बन्धु के मिलन की सम्भावना कैसे हो सकती है। कुछ समझ में नहीं आता हृदय में यह दुविधा कैसी है। इस पर सारथी ने समझाया-'महाराज इस समय आप अपने प्रतिपक्षी के सम्मुख उपस्थित हैं। युद्ध मे विजय के पश्चात् निश्चित ही प्रापका किसी प्रियजन से समागम होगा । इस दुर्दान्त वीर को परास्त फर देने के पश्चात् आपकी सर्वत्र प्रसशा और ख्याति होगी, यही आपके दक्षिणागो के स्फुरण का तात्कालिक सम्भावित फल हो सकता है। समुद्र विजय अपने सारथी के इन प्रिय वचनों का अनुमोदन कर धनुप हाथ में ले उस पर वाण चढाते हुए वसुदेव कुमार से कहने लगे कि प्रिय सुभट । तुमने सग्राम में जिस प्रकार अन्यान्य राजाओं के समक्ष अपनी वीरता दिखलाई है। उसी प्रकार अब मेरे सन्मुख भी
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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