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________________ रोहिणी स्वयवर २३५ देख वसुदेव ठाव ओर अधिक चुप न रह सके और वे सबको ललकारते हुए कहने लगे कि हे । मदोन्मत्त क्षत्रियों तुम लोग जरा मेरी बात ध्यान देकर सुनो । स्वयवर में कन्या स्वेच्छानुसार जिसका चाहे वरण कर सकती है। वहा कुलीन अकुलीन छोटे बड़ी का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सकता । इस समय आप लोग कन्या के पिता या भाई बन्धओं को इस प्रकार जो डरा और धमका रहे हैं यह सर्वथा अनुचित है, कोई महा कुलीन होने पर भी गुणहीन हो सकता है और कोई साधारण कुलोत्पन्न होने पर भो सर्वगुण सम्पन्न सर्वथा अज्ञात कुल-शोल हाने पर भी यदि इस राजकुमारी ने मेरा अपनी इच्छा के अनुसार वरण किया है तो आप लोगो को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए । फिर भी यदि आप लोगों को अपनी वीरता का धमड हो और आप में से जो अपने बल की परीक्षा ही करना चाहते हो ता वे मेरे सामने आजाये । मैं उनके दर्प को अभी चूरचूर कर डालता हूँ। वसुदेव के इस प्रकार निर्भीक और धृष्टता पूर्व वचनों को सुनते ही जो जरासिन्ध अब तक अपनी रोषाग्नि को अपने ही हृदय में समाकर वैठा था सहसा भभक उठा । वह क्राव से कापता हुआ कहने लगा कि सर्व प्रथम तो इस अधम रुधिर राज ने स्वयवर के बहाने हमे यहां बुला कर हम सब का घोर अपमान किया है । और साथ ही इम दुष्ट वेणु वादक ने ऐसे दुर्वचन रूपी आहुति डालकर हमारी क्रोधान्तिको और अधिक बढ़ा दिया है इसलिए अब इन दुष्टों को कापि इन नहीं करना चाहिए । वीरो अब इन्हें तत्काल पकड कर वान्द ई और . इनका काम तमाम कर डालो। जरासिन्ध के ऐसे क्रोव भरे वचन को सुनते ही गाना वसुदेव और रुविर राज आदि पर एवं दम टूट पड़ना ऋग्नं लग । यह देख युवराज हिरण्य नाम न राजकुमारी रथ मे बैठाकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया गाते अपने सेना के वीरों का उत्साहित करते हुए कहा 'पापकी परीक्षा का समय आ गया है। प्रारलाई लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देनी है रूधिर राजा अपने सामन्तों व कर - फर ही रहे व कि वसुदेव ने उन्हें कम र :-*
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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