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________________ २२६ जैन महाभारत घटित नहीं हो सकता। क्योंकि जो ये वस्तुएँ दिखाई देती है वे सिद्ध हैं। इस पर परिव्राजक कहने लगा-'प्रकृति पुरुष का संयोग होते ही ये सब सम्भव हो जाता है। प्रकृति और पुरुष ये दोनों जब अकेलेअकेले रहते है तो नियत स्वभाव और नियत परिणाम के कारण कुछ भी करने में असमर्थ रहते है। पुरुष सचेतन है और प्रकृति अचेतन जैसे सारथी और अश्व क द्वारा रथ मे गति होती है वैसे ही इन दोनों दोनों के सयोग से चिन्तन होता है। तब वसुदेव ने कहा जो परिणामी द्रव्य हो उन्हीं में यह विशेषता सम्भव है कि जैसा कि खटाई और दूध के सयोग से दही का परिणाम होता है रथ की क्रिया की गति के कारण रूप जो अपने सारथी और घोड़े बताये वे दोनों तो चेतन की प्रेरणा से प्रयत्नशील होते हैं। जिस प्रकार रथ चलता है उस प्रकार आत्मा के विषय में आप किसे बतागेगे । परिव्राजक ने कहा-'जिस प्रकार अन्ध और पंगु के सयोग से दोनो ही इच्छित स्थान पर पहुँच सकते हैं उसी प्रकार ध्यान करते हुए पुरुष को चिन्तन पत्पन्न हो जायगा।' वसुदेव ने उत्तर दिया-'अन्ध और पगु ये दोनों तो सचेतन और सक्रिय है पर अपनी इस चर्चा मे तो पुरुष चेतन और प्रकृति अचेतन है । परिस्पन्द-चेष्टा ही जिसका लक्षण है, ऐसी तो क्रिया है और उससे बोध ही जिसका लक्षण है ऐसा ज्ञान है । श्रोत्रन्द्रिय मे परिणत श्रवण शक्ति जिसकी अत्यन्त तीव्र हो गई है ऐसा अन्धा व्यक्ति शब्द रूपी वस्तु को जानता है इस सम्बन्ध मे देवदत्त (अन्धा) और यज्ञदत्त (पगु) का उदाहरण है। इस बात को हम दृष्टान्त से और भी स्पष्टता पूर्वक इस प्रकार समझा सकते हैं कि विशुद्ध और ज्ञानी पुरुष को विपरीत प्रत्यय-विपरीत ज्ञान (विभगज्ञान) कभी नहीं हो सकता, प्रकृति की निश्चेतनता को स्वीकार करने मात्र से अकेला ज्ञान कार्य साधक नहीं हो सकता । जैसे कि-विकार अर्थात् रोग के ज्ञान मात्र से रोग का नाश नहीं हो सकता, पर वैद्य के निर्देशानुसार औषधि और पथ्यादि के अनुष्ठान से ही रोग की निवृत्ति सम्भव है । इसी प्रकार यह आत्मा स्वय ज्ञान स्वरूप है वह अपने किये हुए ज्ञानावरणीय कर्म के वश हो जाता है तो उसे विपरीत प्रत्यय-विपरीत
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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