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________________ कनकवती परिणय २१३. तद्नुसार दधिपर्ण के पास स्वयंवर का निमन्त्रण भेजा गया । दधिप बढी चिन्ता में पड़े, किन्तु एक दिन में वहाँ पहुचना बड़ा कठिन था । इसलिए वे अत्यन्त चिन्तित और उदास हो गये, कुब्ज ने उनकी उदासी का कारण जान उनको कहा कि आप चिन्ता न कीजिए मैं आपको समय से भी पहले वहाँ पहुँचा दूँगा । देखते ही देखते दधिपर्ण का रथ हवा हो गया । और वायुवेग से चलता हुआ वह सूर्योदय से पहले ही कुण्डिनपुर जा पहुचा । कुण्डिनपुर में दधिप को बहुत सुन्दर आवासस्थान दिया गया, और महाराज ने स्वय उनकी सेवा में पहुचकर निवेदन किया कि राजन् | जिस प्रयोजन से मैंने आपको यहा बुलाया है वह तो मैं फिर बताऊँगा । किन्तु इस समय तो मैं आपको यह कष्ट देना चाहता हूं कि आपके यहाँ जो एक अत्यन्त कुशल कुब्ज पाचक है उसकी पाक कला का चमत्कार देखने के लिए सारा अन्त पुर उत्सुक है । अतः आप उस पाचक को मेरे साथ भेज दीजिये । दधिप भला भीमरथ के इस प्रस्ताव को कैसे अस्वीकार कर सकते थे । उन्होंने तत्काल कुब्ज को उनके साथ बिदा कर दिया । उसके हाथ का बना हुआ भोजन चखते ही दमयन्ती ने कहा, पिता जी ये नल के सिवा दूसरा कोई नहीं है किन्तु मैं उनकी एक परीक्षा और भी कर सकती हूँ। उनके शरीर का स्पर्श होते ही मेरा अंग अग रोमांचित हो जाता है इसलिए आप इन्हें कहें कि ये मेरे मस्तक पर तिलक कर दें । कुब्ज ने ज्यों ही दमयन्ती के मस्तक पर तिलक किया कि उसका शरीर कदम्ब पुष्प की भाति रोमाञ्चित हो उठा । अब तो दमयन्ती नेत्रों से प्रेमाश्रु बहाती हुई नल के चरणों में लिपट कर कहने लगी कि हे नाथ | एक बार आप मुझे धोखा देकर भाग निकले थे, पर अब दुबारा धोखा नहीं दे सकते, अब तो मुझे अपना खोया हुआ धन मिल गया है इसलिए कृपा कीजिए और बताइये कि आपका रूप कैसे विकृत हो गया । दमयन्ती के ऐसे प्रेम वचन सुनकर नल का हृदय गद्गद् हो गया। वे अब अधिक देर तक अपने को छिपाकर न रख सके । उन्होंने तत्काल दिल्वफल को तोड़ तथा रत्नमजूषा में से देवदृष्य. रत्नाभरण निकाल कर धारण कर लिये । उन्हें धारण करते ही नल अपने वास्तविक रूप में आ गये ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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