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________________ कनकवती परिणय १८९ हंस के मुख से ऐसी अतर्कित बात सुन राजकुमारी चित्र - लिखित सी रह गई, उसे कुछ समझ नहीं आ रही थी कि वह इस की किस बात का क्या उत्तर दे और क्या न उत्तर दे । देखते ही देखते हस गवाक्ष से उड़ने लगा उड़ते २ उसने अपने फैलाये हुए पखों में से एक अत्यन्त सुन्दर चित्र कनकवती के हाथों में देकर कहा कि हे सुन्दरी ! जिसके अनुपम रूप गुणों की चर्चा अभी २ तुम्हारे सामने की थी यह उसी सुभग का चित्र है । यह मेरी रचना है अतः इसमें कोई दोष या त्रुटि हा सकती है पर निश्चय रक्खा कि उस युवक में कोई दोष नहीं है । इस चित्र के द्वारा स्वयवर मे उपस्थित सहस्त्रों राजकुमारों के होते हुए भी तुम उसे पहचान लोगी । चित्र को देखकर राजकुमारी का मौन टूटा । उसने प्रकृतिस्थ होकर पूछा हे सौम्य मुझे अपने विरह के दुख में डालकर यहाँ से विदा होने के पूर्व यह तो बता जाओ कि तुम कौन हो और तुमने मुझ पर यह अकारण कृपा क्यों की है ? तुम कहाँ से आये हो और वह सुन्दर युवक कौन है ? आशा है तुम यह सत्र बताकर मेरे हृदय की उत्सुकता को शान्त करोगे । कनकवी के इस प्रकार कहने पर इस रूपधारी वह विद्याधर अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर कहने लगा कि भद्रे । "मैं चन्द्रातप नामक विद्याधर हूँ । तुम्हारी और तुम्हारे भावी पति की सेवा करने के लिए ही मैंने यह रूप वारण किया है । एक बात और भी स्मरण रखना कि स्वयवर महोत्सव में वह युवक सम्भवतः किसी का दूत बनकर आवेगा । इसलिए तुम्हें पहचानने में भूल नहीं करनी चाहिये | यह कहकर वह इस वहाँ से उड़ गया । इस के चले जाने पर राजकुमारी बार बार उस चित्र को देख देख कर मोहित होते हुए मन ही मन कहने लगी कि यह चित्र तो मुंह बोलता सा जान पड़ता है । सचमुच इसने मेरे हृदय पर जादू खा कर कर दिया है । निश्चित ही इस परम सुन्दर युवक का और मेरा इस जन्म का ही नहीं कोई जन्म जन्मान्तरों का सस्कार है । अन्यथा यह अकारण बन्धु इस मुझे पहले ही से आकर इस प्रकार सावधान व सूचित क्यों करता । इस प्रकार सोचती हुई उस चित्र को देखते २ वह पागल सी हो गई । कभी उसे हृदय से लगाती । कभी सिर माथे पर
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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