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________________ कनकवती परिय १८६ इस के मुरा मे ऐसी अकिंत बात सुन राजकुमारी चित्र- लिखित ली गई, उसे कुछ समझ नहीं आ रही थी कि वह हम की किस यात का क्या उत्तर दे और क्या न उत्तर है। देखते ही देखते हम गया में उड़ने लगा उते २ उसने अपने फैलाये हुए पत्रों में से एक अत्यन्त सुन्दर चित्र कनकरती के हाथों में देकर कहा कि हे सुन्दरी ! जिनके अनुपम रूप गुणो की चर्चा अभी २ तुम्हारे सामने की थी यह उमी सुभग का चिन है । यह मेरी रचना है अतः इसमें कोई दोप या त्रुटि हो सकता है पर निश्चय रक्खा कि उस युवक म काई ढाप नहीं है। इस चित्र के द्वारा स्वयंवर में उपस्थित सहस्त्रों राजकुमारों के हाते हुए भी तुम उसे पहचान लोगी । चित्र को देखकर राजकुमारी का मौन टूटा। उसने प्रकृतिस्थ होकर पूला सौम्य मुझे अपने विरह के दुख में डालकर यहाँ से विदा होने के पूर्व यह तो बता जाओ कि तुम कौन हो और तुमने मुझ पर यह प्रकारगण कृपा क्यों की है ? तुम कहाँ से आये हो और वह सुन्दर युवक फोन है ? प्राशा है तुम यह सन बताकर मेरे हृदय की उत्सुकता फोशात करोगे। कनकनी के इस प्रकार कहने पर हम रुपधारी वह विद्याधर अपने वास्तविक रूप को प्रकट कर कहने लगा कि भद्रे । “मैं चन्द्रा नामक विद्याधर है । तुम्हारी घोर तुम्हारे भावी पति की सेवा करन के लिए ही मैंने यह रूप वार किया है । एक बात और भी स्मरण रखना कि ग्रायवर महात्लव में वह युवक दूत पनफर आयेगा | इसलिए तुम्हें चाहिये | यह काफर यह हम वहाँ से गया । पहचानने सम्भवत. किमी का में भूल नहीं करनी एस के चले जाने पर राजकुमारी बार बार उस चित्र को देस देख फर मोदिन होते हुए मन ही मन कहने लगी कि यह चित्र तो मुह घोलता सा जान पड़ता है। सचमुच इसने मेरे हृदय पर जादू सा कर कर दिया है। निश्चित ही इस परम सुन्दर युवक का और मेरा इस जन्मही नहीं कोई जन्म जन्मान्तरो वा संसार है । अन्यथा यह कारण एके पहले होने पर इस प्रकार सावधान व सूचियों परता। इस प्रकार सोचती हुई इस चित्र को देसवे २ बह पागल भी हो गई। पनी उसे हृदय में लगाती। कभी सिर माथे पर
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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