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________________ ग्राठवां परिच्छेद कनकवती परिणय भरत क्षेत्र में स्वर्ग की शोभा को भी लज्जित करने वाला पेढालपुर 'नगर या । वहा पर एक महाप्रतापी प्रजा पालक हरिश्चन्द्र नामक राजा राज्य करते थे। हरिश्चन्द्र की लक्ष्मीवती नामक एक अत्यन्त गुणवता, रूपवती पीर पतिपरायणा महारानी थी। ___ महाराज हरिश्चन्द्र के यहाँ कुछ समय पश्चात् एक परम तपवती पुत्री का जन्म हुप्रा, उसके जन्म के समय सम्पूर्ण वेभव और ऐश्वर्य फ प्रधिपति कुंवर ने स्वय पेढालपुर में स्वर्ण की दृष्टि कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी। जन्म के समय हुई इम अपृच घटना के कारण ही उस राजकुमारी का नाम कनवती रखा गया । धीरे-धीरे कनकवती पनेक धात्रियों के द्वारा लालित-पालित हो कर द्वितीया की चन्द्रकला के ममान पढने लगी। महाराज ने अपनी इस प्राणप्रिया पुत्री की शिक्षा दीपा आदि के सम्बन्ध में कोई कसर न रखी । पुत्री होते हुए भी उसके सय फार्य पुत्रपत् सम्पन्न होने लगे। उसकी पढ़ाई के लिए उभट विज्ञान और प्राचार्य नियुक्त कर दिये गये। कुशाग्र बुद्वि वाली उस पालिका ने अल्प समय में चौसठ फलाओं का अध्ययन कर लिया। उसकी इन अपूर्व प्रतिभा को देखकर सभी लोग चकित हो जाते किसी भी विषय फो एफ यार पढ कर ही वह हृदयगम कर लेती थी। पालिकायें यों भी पालकों की अपेक्षा बहुत शीघ्र विवाह योग्य हो जाती है। फिर राजकुमारियों की तो बात ही क्या ? देखते ही देखते पनकपती फा कमनीय फलेवर योयन की फलित क्रान्ति ले सद्भासित रो उठा। पुत्री के गुवावस्था में पदार्पण परते ही उनके परिवार वालों को चिन्ता श परनी है। अब तक कोई चोग्य वर न मिल जावे नव तक नऐ माता पिता का साना, पीना, सोना, उठना, बैठना प्रादि सप फार्य यन्द ने जाते हैं। तदनुसार महाराज हरिश्चन्द्र को भी
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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