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________________ मदनवेगा परिणय १८३ ही रहने दम अश्वरूपधारी सूर्पक के सिर पर ऐसा मुक्का जमाया कि यह तिलमिला उठा और उन्हें वहीं फेंककर भाग निकला। इस "अश्व की पीठ पर से गिरकर वसुदेव गंगा की धारा में जा गिरे। गंगा को पारकर वे एक किसी तपस्वी के श्राश्रम में जा पहुँचे। वहां गले में हट्टियों की माला पहने हुई एक कन्या खडी थी । उसे इस प्रकार सड़ी टेस वमुदेव ने तपस्वी से पूछा: " महात्मन् | यह कौन है और यहां क्यों खडी है ?" तपस्वी ने कहा - " हे कुमार ! यह वसंतपुर के महाराज जितशत्रु की पत्नी और जरासन्ध की नन्दिपेणा ( इन्द्रसेन ) नामक पुत्री है। इसे एक सूरसेन नामक परित्राजक ने विद्या से वश कर लिया था, इसलिए राजा ने उसे मरवा डाला । किन्तु उसके वशीकरण का प्रभाव इस पर इतना अधिक पड़ा कि यह अब तक उसकी हड्डियों धारण किये रहती है।" यह सुनकर वसुदेव ने अपने मन्त्रवल से उसके वशीकरण का प्रभाव नष्ट कर दिया। इससे वह फिर अपने पति राजा जितशत्रु के पास चली गई। राजा जितशत्रु ने इस उपकार के बदले में वसुदेव के साथ अपनी फेनुमती नामक वहिन का विवाह कर दिया । वसदेव वर्दी ठहर गये । और उसका आतिथ्य प्रहण करने लगे । धीरे-धीरे यद् समाचार राजा जरासन्ध के कानों तक जा पहुँचा । उसने दम्भ नामक द्वारपाल को राजा जितशत्र के पास वसुदेव को गगाने के लिये भेजा । जितशत्रु ने वसुदेव को सहज ही दे देना था । क्योंकि एक तो वह जरासन्ध का दामाद था दूसरे उस समय वह सौलह हजार राजाओं का अधिपति था अतः उस भय के मारे उसने तुरन्त हारपाल को सौंप दिया । वमुदेव के राजगृह में पहुँचते हो उन्हें बन्दी घना लिया गया। क्योंकि जरासंध को किसी नमित्तिक ने बताया था कि जो नदीपेशा का परिव्राजक के वशीकरण मन्त्र के प्रभाव से मुक्त करेगा उस ट्री का पुत्र तुम्हारा का विधातक सिद्ध होगा । जरासन्ध के राज्यकर्मचारी इस प्रकार वसुदेव को पकड़कर उन्हें मार डालने के लिए वध-स्थान में ले गये । वहाँ पर पहले से हो वधिक पसुदेव को तत्वार के घाट उतार देने के लिए तत्पर थे । वधिकों ने वसुदेव को तलवार के घाट उतारने के लिये अपने शस्त्र उठाये,
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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