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________________ मदनवेगा परिणय १६६ नागपाश से जकडी१ पडी थी। उसे देखते ही वसुदेव ने वेगवती से पूछा, देखो यह कौन इस प्रकार पीडित अवस्था में पड़ी हुई है । इस पर वेगवती ने उसके पास में जाकर भली भाँति देखकर बताया कि "हे प्राणनाथ उत्तर श्रेणि में गगनवल्लभ नामक नगर है । उस नगर के महाराज चन्द्राभ और महारानी मेनका की पुत्री यह कन्या मेरी बाल सखी है । इसका नाम वालचन्द्रा है । बड़े राजकुल में उत्पन्न हुई यह कन्या अभी तक अविवाहित है । इसे आप जीवन दान देने की कृपा कीजिये । क्योंकि विद्या की सिद्धि करते हुए पुरुश्चरण में कोई त्रुटि हो जाने के कारण यह पीडित होकर इस प्रकार नागपाश मे बन्धी हुई है। इस समय इसके प्राण संकट में पड़े हुए हैं । आप के प्रभाव के आगे कोई भी कार्य असाध्य नहीं है।" वेगवती के इस प्रकार वचनों को सुनकर वसुदेव ने बड़े साहस पूर्वक उसके बन्धन काट दिये । बन्धन मुक्त कर उसके मुख पर शीतल जल के बीटे दिये तथा अपने ऑचल से ठडी हवा करते हुए उसे चेतना में लाने का प्रयत्न किया। सचेत होने पर वह हाथ जोड कर बडे कृतज्ञतापूर्ण शब्दों में वेगवती से कहने लगी कि "हे सखि तुमने मुझे जीवन दान देकर मुझ पर अपना वडा भारी स्नेह दर्शाया है । इस ससार मे जीवन दान से बढकर और कोई दान नहीं हो सकता ! इस लिये मैं आपकी अत्यन्त कृतज्ञ हूँ" तत्पश्चात् वह वसुदेव की ओर अभिमुख होकर उन्हें कहने लगी-हे देव में महाराज विद्य द्दष्ट्र वशोत्पन्न राजकन्या हूँ। हमारे कुल में अत्यन्त कष्ट साध्य महाउपसर्ग वाली अर्थात् जिन की साधना में बडे बडे भयकर विघ्न उपस्थित हो जाते हैं ऐसी महा विद्याएं हैं । उनको सिद्ध करते करते बडे बडो के प्राण सकट में पड़ जाते हैं । किन्तु आपने यहाँ पधार कर मुझे प्राण दान तो दिया ही है, साथ ही मुझे सिद्धि भी आपकी कृपा से प्राप्त हो गई है । कहा तो मुझे मृत्यु के गले लगना था और कहां सिद्धि प्राप्त हो गई।' इस पर वसुदेव ने उसे कहा कि तुम हमें अपना ही समझो । पर यह तो बताओ कि वह विद्युद्द प्ट्र कौन था तथा तुम्हारे कुल में इस प्रकार घोर क.प्ट से विद्याप क्यों सिद्ध होती हैं। उस पर वह बोली"पाप मावधान होकर बैठ जाइये तो मैं अपनी कथा आपको १ नदी में यहती हुई दिखाई दी। त्रि० -
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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