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________________ मदनवेगा परिणय १६७ तो में वेहोश होकर गिर पड़ी। सज्ञा आने पर मुझे पिताजी ने कहा कि घबराने की आवश्यकता नहीं है धैर्य धरो, तुम्हारे पास तो विद्या है। उस विद्या के बल से पता लगा लो कि वह कहा गए हैं और किस अवस्था में है। तब मैंने स्नान कर विद्या का जप किया । उसके प्रभाव से ज्ञात हुआ कि आपको मोनसवेग हर कर ले गया है और विद्याधर भगिनी मदनवेगा से श्रापका विवाह हो गया है । यह जानकर मुझे और भी दुख हुआ किन्तु मुझे पिताजी ने सात्वना दी कि तुम्हारा पति एक न एक दिन तुमको अवश्य मिलेगा, धैर्य धारण करके उनके आगमन को प्रतिक्षा करनी चाहिए। तुम चाहो तो अपनी विद्या के बल से उन के पास जा सकती हो । तब मैंने पिताजी से कहा कि मुझे आपके चरणों में रहते हुए परम हर्प होगा । मैं स्वय चलकर अपने शौक या सौतन के पास कभी नहीं जाऊगी । इस प्रकार अपने पिताजी के घर में रहती हुई मैंने केवल एक ही बार भोजन कर ब्रह्मचर्य और तपस्या के द्वारा अपने शरीर को क्षीण बना डाला। ___ एक दिन बैठे-बैठे मेरे मन में आया कि मैं अपने प्राणनाथ के दर्शन तो कर आऊँ, वे कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं। इस लिये मैं माताजी से आज्ञा लेकर गगन मागे से भारतवर्ष का अवलोकन करती हुई अमृतवार पर्वत पर जा पहुची। पश्चात् उस पर्वत को पार अरिजयपुर पहुच गई। वहा पर मैंने आपको मदनवेंगा के स्थान पर मेरे नाम से पुकारते देखा और सोचा कि मैं सचमुच बड़ी सौभाग्य शालिनी ह कि आर्य पुत्र का अभी तक मेरा स्मरण तो है। इस समय मदनवेगा आपसे नाराज होकर आपके पास से उठकर चली गई। फिर अग्नि का प्रकोप कर आपका वध कर डालने की इच्छा वाली सूपर्णखां१ ने मदनवेगा का रूप धारण कर आपको आकाश में उड़ा दिया। क्योंकि वह मुझ से अधिक विद्या वाली थी, इसलिये मैं उससे १ यह दिवस तिलक नामक नगर के राजा त्रिशिखर की रानी है जिसका सूपकं पुत्र है । जिसके लिए विशिखर ने अमृतधारा नगर के राजा विद्य द्वेग से उसकी पुत्री मदनवेगा को मागा था किन्तु उसने उसे न देकर वसुदेव से विवाह किया । तव से सूर्पक प्रादि की वसुदेव के नाथ शत्रुता शुरु हुई और इन समय पसर देख सूर्पक की माता प्रतिशोध के लिए माई।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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