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________________ मात्तङ्ग सुन्दरी नीलयशा १५६ पाता । तू ने कहा कि मेरा भाई बड़ा रूपवान् है सो चन्द्रमा से बढ़ कर तो इस ससार में कोई सुन्दर नहीं, मैं तो अपने प्राणनाथ को उससे भी सुन्दर समझती हू और शूरवीर तो वे ऐसे हैं कि अनेकों से अकेले ही लोहा ले सकते हैं। उन्हों ने मदोन्मत्त हाथी को अपने वश में करके अपनी वीरता की धाक बैठा दो है, विद्या में वे वृहस्पति के समान हैं । हे वेगवती । ऐसे श्रेष्ठ पुरुष की भार्या होकर मैं किसी अन्य पुरुष की मन से भी इच्छा नहीं कर सकती हूँ ऐसा तो तुझे कभी विचार भी नहीं करना चाहिये । अत तुझे मेरे सन्मुख फिर कभी ऐसी बात न करना । उसके ऐसे विचारों को सुन मैं मन ही मन बडी लज्जित हुई, और मैंने क्षमा मांगते हुए कहा कि हे देवी | मुझ से बड़ी भूल हुई अब मैं तुम्हें फिर ऐसे वचन कभी नहीं कहूँगी । तुम्हारे दुःख को दूर करने का उपाय भी मेरे हाथ में है । मैं अपनी विद्या के बल से सम्पूर्ण जम्बूदीप में भ्रमण कर सकती हूँ । इसलिए मैं अभी जाकर तुम्हारे पति को यहाँ आती हू । वह मेरे भाई मानसवेग को यहां आकर उसके कृत्य का यथोचित दण्ड देगा | यह सुनकर सोमश्री ने कहा कि यदि तुम मेरे प्राणनाथ को यहा ले आओ तो मैं तुम्हारे चरण की दासी बनकर रहूँगी । तदनुसार मैं वहां से चलकर आपको लेने के लिए यहाँ आ पहुँची। यहां आकर मैंने देखा कि आप सोमश्री के विरह में अत्यन्त व्याकुल हैं इसलिए यदि मैंने सब सच्ची बात कह दी तो आप मुझ पर कभी विश्वास न करेंगे और सोमश्री के हरण का वृतान्त सुनकर उसके विरह दुःख के कारण आपके प्राण भी संकट में पड जाये, इसके अतिरिक्त मैं स्वयं भी आपके रूप पर मुग्ध हो गई थी इसीलिए मैंने सोमश्री का रूप धारण कर दुबारा विवाह का ढोंग रच दिया। अब मैं आपकी विधिपूर्वक विवाहिता पत्नी हू | आप मेरे इस अपराध को क्षमा करें । इसलिये उन्होंने उसे क्षमा कर दिया और प्रातःकाल होते ही सोमश्री के हरण का समाचार सब लोगों को सुना दिया गया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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