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________________ मात्तग सुन्दरी नीलयशा __ और तुम इस सम्बन्ध में कुछ बात ही नहीं करती, जब तक तुम कुछ बताओगी नहीं महाराज तुम्हारे हृदय की बात को कैसे जान सकते है । तब सोमश्री न उत्तर दिया कि हे सखि | पिछले भव मे मेरा पति एक देव था हम दोनों पति-पत्नी देवलोक' में बड़े आनन्द से रहते थे । एक दिन हम दोनों भगवान् मुनि सुव्रत अरिहन्त के जन्मोत्सव में सम्मिलित होने के लिये नन्दीश्वर द्वीप मे चले गये । वहाँ से अपने वासस्थान को आते हुए धात्रीखड द्वीप के पश्चिम भाग मे दृढ़धर्म अरिहन्त का निर्वाण महोत्सव मनाया और पुनः आते आते मेरा पति देवलोक से च्युत हो गया। पति के बिछड़ जाने पर मेरी आँखों के आगे अधेरा छा गया, मेरे पांव भारी हो गये और मैं किंकर्तव्य विमूढ सी इधर-उधर भटकती हुई जम्बुद्वीप के उत्तर पूर्व में अवस्थित भद्रशाल वन में जा पहुँची। वहां पर प्रीतिकर और प्रतिदेव नामक दो अवधिज्ञानी मुनि तपस्या कर रहे थे उनसे मैंने पूछा कि भगवन् ! मेरे प्राणनाथ यहा से च्यवकर कहां गये हैं और उनके साथ मेरा समागम कब होगा । इस पर उन्होंने मुझे बताया कि हे देवी, यह तेरा देव चौदहगरोपम आयुष्य के क्षीण हो जाने पर देवलोक से च्यव. कर मनुष्य हो गया है तू भी च्यवकर महापुर नगर के राजा सोमदेव की पुत्री सोमश्री होगी और वहीं पर तेरा अपने स्वामी के साथ समागम होगा। जो व्यक्ति मदोन्मत्त हाथी से तेरी रक्षा करेगा वही तेरा पति होगा। उनके इस प्रकार कहने पर उन्हें वन्दना कर मैं अपने विमान में बैठ कर अपने स्थान पर जा पहुची, पर उस देव के साथ मेरा अत्यन्त मोह था अत मैं सुख चैन से न रह सकी । किन्तु कुछ काल के पश्चात आयुष्य पूर्ण होने पर मैं वहाँ से च्युत हो कर इन महाराज के घर उत्पन्न हुई। अव इधर मेरे स्वयवर के अवसर पर ही सर्वाण भगवान् के केवल ज्ञानोत्सव पर आये हुए देवताओं की कृपा से मुझे २जातिस्मरण ज्ञान होने पर मैं मूर्छित हो गई, चेतना आने पर मैंने सोचा कि मेरे पिता जी ने मेरे लिए स्वयवर रचा हुआ है अनेक राजपुत्र यहा मेरे साथ विवाह के लिये एकत्रित हैं। इसलिये इस स्वयम्वर से बचने के १ स्वर्ग २ पूर्व जन्म का ज्ञान । उत्कृष्ट जाति स्मरण ज्ञानी अपने पूर्व निन्यानवें (६६) सज्ञो भावो (जन्मो) के देख सकता है।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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