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________________ १३६ जैन महाभारत mmmmmmmmmam बारे में कुछ पूछना चाहा था कि उससे पूर्व ही मुनिराज ने उन्हें बता दिया कि-हे पुत्रो । यह तुम्हारे धर्म पिता है। इन्हे श्रद्धा से प्रणाम करो। बड़े भाग्यों से इनके दशन हुये हैं। ये बड़े कष्ट झेलकर यहां तक पहुचे है। यह सुनकर उन्होंने पूछा कि तात आप इन्हे हमारा धर्म पिता कहते है तो क्या ये श्रेष्ठी चारुदत्त तो नहीं ? _ इस पर उन्होंने कहा-हाँ वे ही हैं। धन की खोज मे घूमते भटकते हुए बहुत वर्षों के बाद वे हमे आ मिले है । तब उन्होने मेरा सारा वृतान्त कह सुनाया। जिसे सुन कर उन दोनो विद्याधरो ने बड़ी श्रद्धा के साथ मझे नमस्कार किया और बोले आपने हमारे पिता जी की बड़े भारी सकट के समय, जब उन्हे दूसरा कोई बचाने वाला नहीं था रक्षा कर जीवनदान दिया। उस उपकार का बदला यद्यपि हम किसी प्रकार नहीं चुका सकते तो भी हम जितनी हो सकेगी अधिक से अधिक आप की सेवा सुश्रुषा कर उस ऋण से उऋण होने का प्रयत्न करेगे। हमारे सौभाग्य से ही आपका यहा पधारना हुआ है। ___ हम लोगों की आपस में इस प्रकार बात चीत हो रही थी कि एक अत्यन्त रूपवान् दिव्याभरणों से अलकृत अत्यन्त तेजस्वी देव वहां आ पहुचा । उसने परम हषित होकर "परम गुरु को नमस्कार" ऐसा कहते हुये मेरे को वन्दना की और तत्पश्चात् अमितगति को भी बड़ी श्रद्धा से वन्दन किया । यह व्युत्क्रम देखकर विद्याधर ने पूछा कि देव, पहले साधु को वन्दना करनी चाहिये या श्रावक को । आपने यह वन्दना विपर्यय क्यों कर किया ? तब उसने इस प्रकार उत्तर दिया-साधु को वन्दना करने के पश्चात् ही श्रावक को प्रणाम करना चाहिए । किन्तु चारुदत्त पर मेरी अगाध भक्ति है इसलिये और वास्तव में वे मेरे धर्म गुरु है इस कारण से भी यह क्रम विपर्यय हुआ । इनकी कृपा से ही मुझे यह देव शरीर प्राप्त हुआ है । तब विद्याधर ने पूछा कि यह किस प्रकार सम्भव हुआ सारा वृतान्त बताने की कृपा कीजिये। क्योंकि आपका यह कथन विस्मय जनक प्रतीत होता है। इस पर देव ने कहा मैं पहले भव मे बकरा था । वहाँ पर इनके
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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