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________________ १२८ जैन महाभारत मुख के सिवाय हाथ, पॉव आदि उसके सब अग गल चुके थे। उसमें जीवन के चिन्ह शेष देख कर मैंने उससे पूछा, अरे भाई तुम कौन हो, और यहां कैसे आ पहुँचे हो । उसने कहा कि स्वर्ण रस का- लोभ दे कर कोई साधु मुझे यहाँ ले आया, और मुझ से रस की तुम्बी लेकर मुझे रस कुण्ड के बीच में फेक कर चला गया। यह रस इतना तीव्र है कि शरीर इसको सहन नहीं कर सकता। फिर उसने मेरा हाल पूछा, मैंने भी उसे सारी कहानी कह सुनाई, इस पर उसने कहा, तुम बड़े भाग्यशाली और बुद्धिमान हो । जो तुमने रस की तुम्बी उसे नहीं दी, अन्यथा तुम को भी इस रस कुण्ड की वेदिका पर न उतार कर मेरी भाति कुण्ड के बीच में फेक जाता । फिर तुम कभी यहाँ से नहीं निकल सकते । क्योंकि रस का स्पर्श करते ही तुम्हारे हाथ, पॉव भी गल जाते। तब कुछ उत्साहित होकर मैंने पूछा, तो क्या अब मेरे इस कुए से निकलने की कोई आशा है । इस पर उस दयालु पुरुष ने दया करके बताया कि यहा कभी कभी एक बहुत बड़ी गोह रस पीने आया करती है। जब रस पीकर वापिस चढ़ने लगे, तो तुम उसकी पूछ पकड़ लेना। मेरे भी यदि अग गल न गये होते तो मैं भी इसी उपाय से काम लेता। ___ उसकी यह बात सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ और उस गोह की प्रतिक्षा मे बहुत दिनों तक वही बैठा रहा। आखिर मेरी उस प्रतिक्षा का अन्त हुआ । और एक दिन मुझे बड़ा भारी विचित्र सा शब्द सुनाई दिया । उसे सुनकर पहले तो में मारे भय के थर-थर कॉपने लगा, पर फिर मुझे ध्यान आया कि शायद यह उसी गोह का शब्द हो । मेरा अनुमान सत्य निकला और देखते ही देखते वह गोह आगई और रस पीकर ज्योंही ऊपर चढ़ने लगी कि दोनो हाथों से मैने उसकी पूछ जोर से पकड ली । इस प्रकार गोह के पीछे-पीछे लटकता हुआ मै कुए के बाहर निकल आया। इस प्रकार मैं कुये से तो बाहर निकल आया, किन्तु मुझे इस अज्ञात बीहड़ बन के मार्गों का पता न था। इसलिए मै जगल में इधर उधर भटकने लगा, कि इतने में एक भयकर भैंसा मेरे सामने । आ पहुँचा । वह भैंसा क्या था साक्षात् यमराज का वाहन ही था। काल के समान भयानक उस भैसें के बड़े बड़े तीखे सींग, लाल लाल
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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