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________________ चारुदत्त की आत्म कथा १२३ उचित उपकरण व वस्त्र आदि लेकर आये और कहने लगे कि चलो नगरी में स्नान करे। स्नानान्तर हम लोग नगर मे पहुचे और छोटा मोटा व्यापार कर अपना निर्वाह करने लगे। इस व्यापार का प्रारम्भ हमने अपने छोटे मोटे आभूषण बेचकर किया था। क्रमशः हमने रूई, कपास और सूत आदि वस्तुओं का क्रय विक्रय करना शुरू कर दिया। इस व्यापार में हमे पर्याप्त लाभ हुआ और हमने रूई के कई कोठे भर लिये। किन्तु यहाँ पर एक दिन रूई को आग लग गई । हम भी चारों ओर से आग मे घिर गये जिसमें बड़ी कठिनाई से प्राण बचाकर निकल पाये। प्रात काल नगर वासियों ने आकर इस नुकसान के लिये आश्वासन दिया कि कोई बात नहीं। आज कुछ हानि हुई है तो कल लाभ हो जायगा। यहां से रुई और सूत की गाडियां भर के एक साथ ( काफिला ) हम लाग उत्कल देश की ओर चल पड़े । वहा से कपास की गाड़ियाँ भरकर ताम्रलिप्ति नामक नगरी की अो बढ़ गये। धीरे धीरे चलते हुये हम लोगों के मार्ग में एक घना जगल पडा । इस जगल में हमें रात्रि भर के लिये ठहरना था क्योंकि उस समय तक सूर्यास्त हो चुका था अतः हम वहीं विश्राम करने लगे । हमारे को सोये हुये थोड़ी ही देर हुई थी कि जगल में भयकर दावाग्नि व्याप्त हो गयी। देखते ही देखते आग को भयकर लपटों से दशों दिशाये प्रज्वलित हो उठी। उस प्रलय काल के समान चारों ओर फैलती और लपलपाती लपटो वाली अग्नि की ज्वालाओं में से माल-असबाब को बचाना तो दूर रहा, अपने आपको सकुशल निकाल लेना भी बड़ा कठिन था । सब लोग अपने प्राणों की रक्षा के लिये इधर-उधर भागने लगे। इस भगदड में कौन कहा गया किसी को भी मालूम नहीं रहा । यही नहीं ज्ञात हो सकता था कि उस कालाग्नि में से कौन बच निकला और कौन वहीं जल मरा। कुछ भी हो मेरी आयु शेष थी इसलिये मैं तो बच गया किन्तु मेरे मामा सवार्था का कुछ पता न लग सका कि वे जीते जी बच निकले कि वहीं रह गये। अब मैंने अकेले,वनमें भटकते हुये भी हिम्मत न हारी। मैने निश्चय कर लिया कि या तो अपने शरीर का ही त्याग कर लू गा या धन संचय करके ही घर लौटूगा। यह भी मैं जानता था कि
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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