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________________ चारुदत्त की आत्मकथा १२१ सुन । क्योंकि जो मनुष्य अपने गुरुओं के उपदेशामृत मन्त्र का पालन करता है उसे कभी संकटों का सामना नहीं करना पडता । तू जानती है हमारी आजीविका सबसे नीच है। वेश्यावृत्ति से अधिक निंद्य कर्म कोई नहीं । इसलिये हमें यही उचित है कि जब तक मनुष्य के पास पैसा हो तभी तक उसे प्रेम करके काम लें । पश्चात् निर्धन होने पर पीतसार-चूसे हुए ईख के गन्ने के समान उसे छोड दें। आज चारुदत्त की स्त्री मित्रवती के गहने मेरे पास आये थे। उन्हे देखते ही मुझे दया आ गई और मैंने ज्यो के त्यो उन्हें वापिस लौटा दिया। अब यह चारुदत्त निर्धन हो चुका है इसलिये तुझे इसे छोड देना चाहिये । रसपूर्ण गन्ने के समान अन्य किसी धनवान पुरुष के साथ आनन्दोपभोग कर । वसन्त सेना ने अपनी मां के ऐसे शब्दों को सुनकर उसके हृदय पर मानो बिजली गिर गई, उसने उसी समय माता को उत्तर दिया। मा तूने यह क्या कहा। यह चारुदत्त कुमार अवस्था से ही मेरा पति है । बहुत समय से मैंने इसके साथ भोग विलास किया है मैं इसे कभी भी नहीं छोड़ सकती। यदि और कोई मनुष्य कुबेर के समान धनवान हो तब भी मेरे किसी काम का नहीं। मेरे यह प्राण भी चाहें कि हम चारुदत्त के बिना रहेगे, उस के साथ नहीं, तो ये भी खुशी से चले जाय, मुझे इनकी भी कोई आवश्यकता नहीं। मा यदि तू मुझे जीवित देखना चाहती है तो फिर कभी ऐसी बात मत कहना । हाय ।। जिनके घर से आई हुई स्वर्ण मुद्राओं से तेरा घर भर गया, आज तू उसे ही छोड़ने को कह रही है। ठीक, स्त्रियाँ बडी कृतघ्न और दुष्टा होती है । अरी । यह चारुदत्त अनेक कलाओं में पारगत है, परम सुन्दर है उत्तम धर्म का उपदेश देने वाला है, महा उदार है भला इसको मै कैसे छोड सकती हूँ । इस प्रकार पुत्री को मुझ में आसक्त जान कलिंग संना ने उस समय तो कोई उत्तर नहीं दिया। लडकी की हाँ में हाँ मिलाली, किन्तु मन ही मन हम दोनों को अलग करने का विचार करने लगी। आसन पर सोने के समय स्नान और भोजन के समय हम दोनों एक साथ रहा करते थे। एक दिन हम दोनों को बड़ी सावधानी से सुला दिया। जब हम गहरी नींद में सो गये तो उस दुष्टनी ने ममे घर से बाहर कर दिया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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