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________________ चारुदत्त की आत्म कथा ११६ I वेश्या रहती थी । उसकी वसन्तसेना नामक परम रूपवती पुत्री थी, वह सुन्दरता में साक्षात् वसन्त लक्ष्मी के समान प्रतीत होती थी । और नृत्य-गीत आदि कला कौशल म परम प्रवीण थी। एक दिन अपने चाचा के साथ मै एक उत्सव देखने गया । दैवयोग से उस समय वहा वसन्तसेना का नृत्य हो रहा था । मै भी नगर के श्रेष्ठतम कलाविदों के बीच जा बैठा । वसन्त सेना उस समय सूची नाटक ( सुइयों के अग्रभाग पर नाचना ) आरम्भ करना चाहती थी । उसके पहले ही उसने चमेली की कलियां बिखेर दीं। गायन के प्रभाव से वे कलिया तत्काल खिल गई । यह देख मडप में बैठे हुए लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। मुझे इस बात का पूर्ण ज्ञान था कि पुष्पों के खिलने से कौन सा राग होता है इसीलिये मैंने शीघ्र ही उसे मालाकार राग का इशारा कर दिया । वेश्या ने अगुष्ठका अभिनय किया लोगों ने फिर उसकी प्रशंसा की और मैंने नख मडल को साफ करने वाले नापित राग का इशारा किया। जब वह गौ और मक्षिका की कुक्षिका का अभिनय करने लगी तो और लोग तो पहिले ही की भाति वेश्या की प्रशसा करने लगे और मैंने गोपाल राग का इशारा कर दिया । वेश्या वसतसेना हावभाव कलाओं में पूर्ण पडता थी इसी लिये जब उसने मेरा यह चातुर्य देखा तो वह बड़ी प्रसन्न हुई । गुली की आवाज पर मेरी प्रशसा करने लगी, और अनुराग वश समस्त लोगों को छोड़ मेरे सामने आकर अति मनोहर नाच नाचने लगी । नृत्य समाप्त कर वेश्या वसतसेना अपने घर चली गई । परन्तु मेरे उस चातुर्य से उसके ऊपर कामदेव ने अपना पूरा अधिकार जमा लिया था, इसी लिये वह घर जाते ही अपनी मा से बोली "मॉ । इस जन्म में सिवाय चारूदत्त के मेरी दूसरों के साथ प्रणय न करने की प्रतिज्ञा है, इसलिये तू बहुत जल्दी मेरा और उस का मिलाप कराने का प्रयत्न कर। पुत्री की यह प्रतिज्ञा सुन कलिंगसेना ने शीघ्र ही मेरे चाचा रुद्रदत्त को बुलाया और दान मान आदि से पूर्ण सत्कार कर मेरे और वसतसेना के मिलाप का समस्त भार उस के शिर मढ़ दिया । रुद्रदत्त इन बातों में बडा प्रवीण था उसने एक समय मार्ग में जाते हुए मेरे आगे और पीछे दो मत्त हाथी निकाले जिससे कि घबराकर चाचा के साथ उसके कहने से मैं उसी वेश्या के घर में
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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