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________________ चारुदत्त की आत्मकथा ११५ आप निकल जाते हैं। व्रण सगरोहण नामक औषधि से घाव भर जाते हैं । अत इस बात का ज्ञान करना आवश्यक था कि पहले किस औषधि का प्रयोग किया जाय । इस पर गोमुख ने कहा कि किसी दूध निकलने वाले वृक्ष को काटकर इन औषधियों के गुणों की परीक्षा करनी चाहिये कि किस औषधि से क्या कार्य सपन्न होता है । तदनुसार सब औषधियो के पता लगाने पर उनके प्रयोग के द्वारा विद्याधर को बन्धन मुक्त कर दिया गया। उनके जिस शत्रु ने उन्हे वृक्ष से जकड़ कर उनके अगों में कील ठोके थे, उसने इस बात का ध्यान रखा था कि विद्यावर को प्राणान्तक पीडा पहुचे पर वह मर न जाये। क्योंकि उसे असह्य दुःख पहुचाना अभिष्ट था मार डालना नहीं । स्वस्थ और सचेष्ट होने पर विद्याधर ने पूछा कि मुझे प्राणदान किसने दिया है। तब मेरे साथियों ने मेरो ओर सकत करते हुये बताया कि इन महानुभाव की कृपा से हमें आपकी थैली में पड़ी हुई ओषधियों का ज्ञान हुआ। इस लिये आपको जीवन दान का श्रेय हमारे मित्र चारुदत्त को ही है । यह सुन विद्याधर ने हाथ जोडकर मझे कहा-'आपने मुझे जीवन दान दिया। इसलिये मैं आपका सेवक हूँ बताइये मैं आपका इसके लिये क्या प्रत्युपकार करू । तब मैंने कहा आप वयोवृद्ध होने के कारण मेरे लिये पिता के समान पूज्य हैं। अतः ऐसे वचन कह कर मुझे लज्जित न करे । आप यदि मुझ पर उपकार करना चाहते हैं तो इतना ही कीजिये कि यथा समय मुझे अपना जान कर समय समय पर स्मरण रखे । इस प्रकार हमारे पारस्परिक वार्तालप के समाप्त हो जाने पर गोमुख ने उस विद्याधर से पूछा कि-आपको इस विपत्ति में किसने और क्यों डाला ? इस पर उसने अपनी कथा सक्षेप में इस प्रकार वताई अमितगति विद्याधर का वृत्तान्त वैताढ्य की दक्षिण श्रेणि में शिवमन्दिर नामक नगर है। वहाँ के महेन्द्र विक्रम नामक एक बड़े पराक्रमी विद्याधरों के राजा राज्य करत हैं । उनकी सुयशा नामक रानी है। उन्हीं का मैं अमितगति नामक आकाश गामिनी विद्या जानने वाला विद्याधर हूँ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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