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________________ १०४ जैन महाभारत प्रति दया शील है, मनुप्य तो क्या ये तो केन्द्रिय जीवों को भी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहते । प्रतः इनसे तुम्हें किसी प्रकार के भय या अनिष्ट की आशका भी नहीं करनी चाहिए । इन 'सत हिनंरत' माधुग्रो को व्यर्थ मे मत सताओ । प्राणिमात्र के उपकारक निरी, शत्र मित्र में सम भाव रखने वाले साधु सन्तो पोर गुनिराजो के प्रति आर भान रखना ही सभी राजापो की दुल परम्परा है । उमलिता नपा काल में उन्हें यहीं रहने दो, चर्तुमास समाप्त होत ही ये अपने पाप यहाँ से विहार कर जायेगे। ___ इस पर बल गर्वित नमु चि बोला-राज चरित्र पर कुल परम्परा की बात तो उन राजाओ के लिए है, जो वश परम्परा गंगा होते आये हैं किन्तु मुझ पर तो यह नियम लागू हो ही नहीं सकता। क्यो कि मेरे बाप दादा तो राजा थे नहीं, मैं तो नया राजा है इसलिए पुराने राजाओ के चरित्रो की बात मेरे सामने नही चल सकती । मुझे इन साधुओं से कुछ प्रयोजन नहीं इसलिये एक सप्ताह के पश्चात भी यदि किसी साधु को मैंने अपने देश में देख लिया तो उसके लिये अच्छा न होगा। आप यहाँ से मकुशल पधारे मैं आपको कुछ नहीं कहता पर दूसरे साधुओ का यहाँ रहना मै कभी सहन न कर गा। यह सुनकर विष्णुकुमार ने सोचा कि इस दुरात्मा नमु चि ने साधुओं की हत्या के लिये कमर कस ली है त सध पर ऐसी भयकर विपत्ति के समय मुझे चुपचाप नहीं रहना चाहिये । और इस दुष्ट को दड देने के लिये कुछ उपाय अवश्य करना चाहिये । यह सोचकर उन्होंने उससे कहा हे राजन् । यदि आपका यही निश्चय है तो मुभ कहीं भी तीन पांव भूमि दे दो। वे सब साधु उस भूमि में रहकर अपन प्राण त्याग देंगे। तुम्हारे तीन कदम दे देने से मेरी बात भी बन जायगी, और तुम्हारा साधुओं को मारने का निश्चय भी पूरा हो जायगा । इस पर सन्तुष्ट हुये नमुचि ने उत्तर दिया, कि यदि यह सत्य है ता आपको यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि वे साधु जीते जी उस स्थान से बाहर न निकलेगे। यदि आप ऐसा विश्वास दिलाएँ तो आपको तीन पग भूमि देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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