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________________ मुनिराजों की उसने फिर ग भी यदि १०२ जैन महाभारत मुनिराज बोले-राजन् । वर्षा ऋतु में विहार करना शास्त्र के विरुद्ध है, और प्रापके राज्य से बाहर हम जा कहाँ सकते हैं, क्योकि छ ही खंडों में आपका राज्य है। किन्तु क्रोधोन्मत्त नमु चि को मुनिराजों की यह युक्ति सगत वात कैसे जचती । उसने फिर गरजते हुए कहा कि एक सप्ताह के पश्चात् भी यदि आप यहाँ रह गये तो मैं आपका वध करवा डालू गा। इस पर साधुओं ने कहा, 'हम श्री संघ में विचार कर आपको उत्तर देगे।' तब सघ में उपस्थित स्थविर ने कहा कि हे आर्यो । आज संघ के लिए बड़ी भारी परीक्षा का समय आ गया है। अत पाप लोग यताये कि आप में से किस किस के पाम कौन कौन सी ऋद्वि है। उनमे से एक साधु बोला मुझ मे आकाश गमन की शक्ति है। इसलिये मेरे योग्य कोई कार्य हो तो आज्ञा दीजिये। तब श्रमणस्थविर ने कहा-आर्य तुम जाओ, और इस अगमन्दिर पर्वत पर से विष्णुकुमार को कल ही यहा ले आओ। वह साधु बहुत अच्छा कह कर तत्काल वहाँ से चला गया। उसने वहां पहुंचकर विष्णु कुमार को संघ स्थविर की आज्ञा कह सुनाई, यह सुनते ही विष्णु कुमार ने कहा, 'भदन्त' हम कल ही हस्तिनापुर जा पहुचेंगे। तदनुसार वे यथा समय वहाँ आ पहुचे। उनके आते ही साधुओ ने उन्हे नमुचि की सब उत्पात कथा कह सुनाई। तब विष्णु कुमार ने कहा, आप लोग निश्चिन्त रहें और इस क्लेश को मिटाने का भार आप मुझ पर डाल दे। मैं सब व्यवस्था कर लू गा। इस प्रकार कहकर आर्य विष्णु अपने बड़े भाई महापद्म के पास पहुंचे और उन्हे मनियों के नम चि द्वारा दिये जाने वाले उपसर्गो (कष्टो) की सारी बात सुनाई। तथा ऋपिया-तपस्वियो के लताने का परिणाम सुन्दर नहीं होता है आदि सब कुछ नमु चि को समझाने के लिए और उससे पुन. राज्य ले लेने को बाध्य किया। इस पर महापद्म ने उन्हें बताया कि मैंने उसे प्रसन्न हो एक वर मांगने के लिये कहा था किन्तु उसने उस समय न लेकर अपनी धरोहर के रूप में रखने के ये कहा, कुछ समय पश्चात् उसने वर के उपलक्ष्य मे सात दिन का - मांग लिया। मुझे मालूम नहीं था कि उसने इस अधम कार्य के - राज्य मांगा है अत.मैने उसे अपनी प्रतिज्ञानुसार राज्य दे दिया। त्रिय का कर्तव्य है कि वह अपनी वाणी को पूर्णरूप से निभाये । अतः
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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