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________________ १८. जैन महाभारत सूक्ष्म बादर आदि विविध रूप धारिणी ३ अन्तधानी और गगन चारिणी ये चार लब्धिया प्राप्त हो गई। उसी समय इधर उज्जयिनी नामक नगरी में श्रीधम नामक । राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम श्रीमती था । महाराज श्रीधर्म के बलि, हरपति, नमुचि और प्रहलाद नामक चार मत्री थे और ये चारो ही अत्यन्त नीति निपुण थे। इस उज्जयिनि नगरी के बाहर एक अत्यन्त रमणीय उद्यान था। एक समय मुनिराज अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियो के साथ वहाँ पधारे। मुनिराजो के आगमन का समाचार सुन कर नगरी निवासी लोग उन का स्वागत करने के लिए नगर से बाहर आने लगे। इस प्रकार जनवृन्द को सामूहिक रूप से सजधज कर नगर से बाहर जाते देख महाराज श्री धर्म ने अपने मत्रियों से पूछा कि मत्रीगण ! आज न तो कोई उत्सव का ही दिन है और न किसी विशेष यात्रा का ही है। फिर ये सब बालक, बूढ़े, स्त्री, पुरुष आज कहा जा रहे हैं ? इस पर प्रधान मत्री नमुचि ने कहा, "महाराज आज उज्जयिनि मे अज्ञानी जैन क्षपणक आ रहे है । उनकी वन्दना तथा स्वागत करने के लिए ये लोग नगर से बाहर जा रहे हैं । इस प्रकार मत्रियो के मुख से मुनिराजों के शुभागमन की सूचना पाकर श्रीधर्म प्रात्यन्त प्रसन्न हुए। वे भी तत्काल अपनी पटरानी के साथ उनके स्वागतार्थ चल पड़ने को उद्यत हो गये। चारो मत्रियों ने उन्हें रोके रखने का भरसक प्रयत्न किया। पर उनमें से किसी की एक न चली। जब महाराज को मुनियों के दर्शनार्थ जाते देखा तो चारों मन्त्रियो को भी उनके साथ जाना पड़ा। किन्तु वे दुबुद्धि महाराज श्रीधर्म का मुनिराज की सेवा में आना सहन न कर सके और महाराज की अनुपस्थिति में अवसर पा एक दिन मुनिराजाओं को बहुत भला बुरा कहने लगे। पर क्षमा के अवतार मुनियों ने उनके दुर्वचनों की कुछ भी परवाह न की क्योंकि निन्दक नियरे राखिये, आगन कुटि छवाय, बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय । के अनुसार वे तो अपने निन्दकों को भी क्षमा ही करते रहे । सघ आचार्य ने अवधिज्ञान के बल से भावी आपत्ति को पहले ही जान र सब मुनिराजों को आदेश दे दिया कि इस विपत्ति के समय .
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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