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________________ वसुदेव का गृहत्याग ८१ माता का नाम सुप्रभा था । और अंगारक की माता का नाम विमला । जब मेरे पिता शनिवेग को उनके वडे भाई ज्वलनवेग ने राज्य दे दिया तो श्रगारक बडा क्रुद्व हुआ और उसने अपनी विद्या के बल से उन्हें राज्य भ्रष्ट कर दिया । "+" www. इस प्रकार राज्य- च्युत होकर मेरे पिता इस कुजरावर्त नगर में रहने लगे | किन्तु यहा वे पिंजर बद्ध पक्षी की भाति सदा उदास रहते थे। 1 इस प्रकार दु ख और अपमान के कारण मेरे पिता श्रष्टाप पर्व की ओर निकल गए। वहाँ पर उनकी एक चारण ऋद्धि के धारक श्रगिरस नामक मुनिराज से भेंट हो गई। उन्होंने उनसे पूछा कि हे मुनिराज ' श्राप अवधि ज्ञान रूप दिव्य चक्षु से भूत भविष्य और वर्तमान् को भली भांति जानते हैं । इसलिए कृपा कर कहिये कि मेरा राज्य फिर से मेरे हाथ आयेगा या नहीं । राजा के यह वचन सुन मुनिराज ने अपने दिव्यज्ञान रूपी नेत्रों से प्रत्यक्ष देखकर कहा कि तुम्हारी पुत्री श्यामा को जो वरेगा उसी की कृपा से तुम्हें अपने राज्य की पुन प्राप्ति होगी । मुनिराज के ऐसे वचन सुनकर मेरे पिता ने फिर पूछा कि हे ! भगवन् क्या 'प्राप दया करके यह भी बतला सकते हैं कि मेरी पुत्री का पति कौन और केसा होगा । मुनिराज ने उत्तर दिया- राजन् जलावर्त सरोवर पर मदोन्मत्त गज के मढ़ को जो चूर २ कर देगा, निश्चित रूप से वही तुम्हारी पुत्री श्यामा का पति होगा । मुनिराज के ऐसे आनन्द दायक वचन सुनकर मेरे पिता अपने स्थान पर लौट आए । उसी समय से यह भव्य नगर बना, इसे अपनी राजधानी बनाकर यहीं निवास करने लगे । आपके आने की प्रतीक्षा में जलावर्त सरांचर के तट पर दो विद्याधरों को नियत कर दिया गया। जिस दिन आपने उस गज को पराजित कर उस पर सवारी की उसी समय वे प्रापको पहचान कर यहां ले आए और इसीलिए मेरा पाप के साथ मेरे पिता ने विवाह कर दिया | इस दुष्ट पगारक को भी इस समस्त वृतान्त का पता अवश्य लग गया होगा । चार वह मन ही मन जल रहा होगा । हे । नाथ अग्नि के समान देदिप्यवान् वा प्रगारक मत विद्या के प्रभाव से मत्त हो रहा है। आपको आगामिनी जादि विद्याएं आती नहीं। इसलिए यदि
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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