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________________ जैन महाभारत प्रकाश पुञ्ज को देखकर सारथी स्तब्ध रह गया । वह लपक कर पीछे पहुंचा । किसी अज्ञात अनिष्ट की आशका से उसका हृदय धड़क रहा था कि कहीं कुमार वसुदेव ही चिता मे जल न मरे हो । चिता के पास पहुंचते ही उसमे अस्थि ककाल जलता हुआ दिखाई दिया। इस दृश्य को देखकर वह फूट-फूट कर रोने लगा, और कहने लगा कि हाय कुमार तुम हमे छोडकर क्यो चले गये । इस प्रकार रोते-विलखते हुए उसने आकर वसुदेव का वह पत्र महाराज समुद्रविजय के हाथो मे दे दिया । महाराज समुद्र विजय ने ज्यो ही वह पत्र खोलकर पढ़ा, कि सन्न रह गये, सारा शरीर थर थर कॉपने लगा, चेहरा पीला पड़ गया माथे पर पसीने की बू दे चमक आई और वह पछाड खाकर धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। उनकी अकस्मात् यह दशा देख सारी रानियाँ एकत्रित हो गई। सब भाइयों ने आकर उन्हें घेर लिया। धीरे धीरे चेतना आने पर सब लोगों को उस पत्र का वृतान्त ज्ञात हो गया। उस पत्र मे लिखा था कि'महाराज मेरे पिता के समान है, वे सुख से रहे पुरवासी जन भी सुख से जीवन व्यतीत करें और मेरे शत्रुजन भी आनन्द मनाये, इसलिए मैं चिता में प्रविष्ट होकर मर रहा हूँ।' अब क्या था, ज्यों ज्यो पत्र की चर्चा फैलने लगी, त्यों त्यों सभी लोग दौड़ते हुए श्मशान में पहुंचने लगे। पर अब तक तो शरीर चिता में जलकर राख का देर हो चुका था । अब तो वहाँ मानव की मुट्ठी भर जली हुई हड्डियाँ (फूल) और कुछ राजकुमार के स्वर्ण हीरे आदि के बहुमूल्य आभूषणो के अवशेष ही पडे थे। इस दृश्य को देखकर राजा प्रजा, राज परिवार सभी चीखे मार मार कर रोने लगे । अब तो सब प्रजाजन सिर फोड़ फोड़ कर पछताते और अपनी करनी पर सिर धुनते कि हम ने यह क्या किया, हमारे ही पापों के प्रायश्चित स्वरुप आज हमको यह दिन देखना पड रहा है । वह पुष्प सा सुकोमल कुमार वसुदेव अग्नि की प्रचड लपटों मे झुलस कर भस्म हो गया । हे दैव ! क्या आज का दिन दिखाने के लिए ही हम सव को जीवित रखा था, हमने अपने हाथो अपने पैरो पर कुल्हाड़ी क्यों मार ली । यदि हमें ऐसा ज्ञात होता तो हम उसके बारे मे कभी कुछ न कहते ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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