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________________ अधिक खाने वाले व्यक्ति का अपानवायु दूषित होता है। उसके मानसिक और बौद्धिक निर्मलता नहीं होती। बहुत खाने से पाचन ठीक नही होता। उससे वायु-विकार (गैस) बढ जाता है। मन की एकाग्रता के लिए वायु-विकार सभवत सबसे बडा विघ्न है। इन सब कारणो के आधार पर हम ध्यान और ऊनोदरिका का सम्बन्ध समझ सकते हैं। प्रश्न-ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए स्निग्ध और मधुर भोजन का विधान है, उस स्थिति मे रस-परित्याग कैसे आवश्यक हो सकता है ? उत्तर-ध्यान के लिए वीर्य-शुद्धि या ब्रह्मचर्य बहुत आवश्यक है। दूध, घी आदि रसों का प्रचुर सेवन करने से वीर्य पर्याप्त मात्रा मे बढता है। वह कामवासना को उत्तेजित करता है। उससे मानसिक चचलता बढती है और वीर्य दोष उत्पन्न होते है। यदि वीर्य-सचित रहता है तो मन की चचलता बनी रहती है और यदि उसका विसर्जन किया जाता है तो उससे स्नायविक दुर्बलता वढती है। स्नायविक दुर्बलता वाले व्यक्ति के मन का सन्तुलन नहीं हो सकता। मानसिक सन्तुलन के अभाव मे ध्यान की कल्पना ही नही की जा सकती। इसीलिए रसो का प्रचुर मात्रा मे सेवन करना ध्यानाभ्यासी के लिए हितकर नही है। रस-परित्याग का सम्बन्ध अस्वादवृत्ति से है। जिसका मन स्वाद-लोलुपता में अटका रहता है उसके लिए ध्यान करना बहुत कठिन है, ध्यानाभ्यास के लिए वैषयिक अनुवन्धो से मुक्त होना बहुत आवश्यक है। वैषयिक अनुबन्धो मे स्वाद का अनुबन्ध बहुत तीव्र होता है। उसके परिणामो पर विचार करने पर ध्यान और यथावकाश रस-परित्याग का सम्बन्धबोध सहज ही हो जाता है। __रस-परित्याग की निश्चित मर्यादा करना कठिन है। फिर भी उसके विषय मे कुछ रेखाए खीची जा सकती है १. ध्यानाभ्यासी के लिए अधिक मात्रा मे दही खाना उचित नही है। उससे शारीरिक और बौद्धिक जडता उत्पन्न होती है। २. तली हुई चीजो से पाचन पर अनावश्यक भार पडता है, इससे वे भी हितकर नहीं है। मनोनुशासनम् / ४६
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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