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________________ योगशास्त्र के आचार्यों ने एकीकरण, समरसी भाव, समापत्ति या समाधि कहा है। ध्यान का फल इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है-पुराने जमाने की बात है। मगधदेश मे देवरापुर नाम का नगर था। वहा दो मित्र थे। एक का नाम राम था। वह वनिए का वेटा था। दूसरे का नाम नागदत्त था। वह ब्राह्मण का बेटा था। उन दोनो मे बहुत प्रेम था। वे सुख से रह रहे थे। एक दिन वहां राज्यविद्रोह हो गया। चारो ओर लूट मच गई। तब वे दोनो वहा से दौडे और दक्षिणापथ की ओर चले गए। एक बार वे दोनो काठ लाने के लिए जगल मे गए। वहां महावल नाम के साधु कायोत्सर्ग की मुद्रा मे खड़े थे। ध्यानलीन होने के कारण वे पर्वत की भांति अडोल थे। उन्होने साधु को देखा। वह जीवन मे पहला ही अवसर था। वे उन्हे अपलक देखते रहे। थोडी देर बाद एक-बड़ा-सा साप विल मे से निकला और सीधा साधु के पास जा पहुचा । उन्हे डसकर वापस विल मे घुस गया। साधु अब भी वैसे ही खड़े थे। ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए। उनके शरीर मे विष भी नही व्यापा। राम और नागदत्त को वहुत आश्चर्य हुआ। साधु ने कायोत्सर्ग पूर्ण किया। वे साधु के पास गए, वन्दना की और बोले-भगवन् । सांप ने आपको काटा तो आप पर असर नही हुआ ? आप इस प्रकार कायोत्सर्ग में रहते है, क्या आपको सर्दी-गर्मी से कष्ट नही होता ? साधु ने कहा-महानुभावो । जो ध्यान-कोष्ठ मे स्थिर होता है, वह बाहरी स्थिति से प्रभावित नहीं होता। सर्दी-गर्मी आदि से बाधित नही होता, यह मेरा अनुभव है। इस ध्यान-कोष्ठ में शीत लहर का कोई असर नहीं होता और न तेज हवा से उद्वेलित अग्नि भी अपना प्रभाव दिखा पाती है। भयकर कोलाहल वहा वाधा नही डाल सकता और साप आदि विषैले जन्तु वहा पीडा उत्पन्न नही कर सकते। इन शारीरिक कष्टो की क्या बात है, वहा मानसिक कप्ट भी नही पहुच पाते है। ईर्ष्या, विपाद, शोक आदि जितने भी मानसिक कष्ट है, वे सव ध्यानलीन व्यक्ति के सामने निर्वीर्य बन जाते है। मनोनुशासनम् / ४७
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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