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________________ की स्थिति चलती है, ध्यान की स्थिति प्राप्त नहीं होती। जब आलम्बित विषय साक्षात् हो जाता है तब धारणा ध्यान के बिन्दु पर पहुच जाती है। एक आलम्बन पर मन को टिकाना ध्यान का प्रारम्भ है, पूर्णता नही। उसकी पूर्णता निरोध अवस्था मे प्राप्त होती है। १ मन का निरोध (मन का सवर) २ वाणी का निरोध (वाणी का सवर) ३ शरीर का निरोध (शरीर का सवर) ४ श्वास का निरोध (श्वास का संवर) जब ये चारो निरुद्ध हो जाते है तब ध्यान की वास्तविक कक्षा प्राप्त होती है। यही जैन परिभाषा मे सवरयोग है। प्रश्न-एकाग्रता या स्थिरता और निरोध मे क्या अन्तर है ? उत्तर-दीया हवा मे पडा है। उस समय उसकी लौ बहुत चंचल होती है। उसे कमरे के भीतर निर्वात प्रदेश मे रख देने पर उसकी लौ स्थिर-शान्त हो जाती है। तेल या घी के समाप्त होने पर दीया बुझ जाता है, लौ समाप्त हो जाती है। दीये की पहली अवस्था चचल है, दूसरी स्थिर और तीसरी निरुद्ध । ज्ञान की तुलना हवा मे रखे हुए दीये से की जा सकती है। एकाग्र-ध्यान की तुलना निष्प्रकम्प दीये से हो सकती है। निरोधात्मक ध्यान बुझे हुए दीये जैसा होता है। उसमे मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। हमारा चैतन्य शाश्वत है। मन शाश्वत नही है। मन मन्यमान होता है अर्थात् वर्तमानकाल मे होता है। मनन से पहले क्षण मे मन नही होता और उसके उत्तरक्षण मे भी मन नही होता। इसका आशय यह है कि मन मननकाल मे उत्पन्न होता है। जो उत्पन्न होता है, उसके अस्तित्व का विलय भी होता है। निरोधात्मक ध्यान की प्रक्रिया यही है कि अनुत्पन्न मन को उत्पन्न नही करना । मन को उत्पन्न न करने का अर्थ है-कल्पना, स्मृति और इच्छा से मुक्त हो जाना। प्रश्न-मन का निरोध, निद्रा और मूर्छा क्या एक नही है ? उत्तर-निद्रा मे मन का निरोध नही होता। उसमे स्थूल मन निष्क्रिय हो जाता है किन्तु सूक्ष्म मन (अवचेतन मन) काम करता रहता है। इसलिए निद्रा मानसिक निरोध की स्थिति नहीं है। मूर्छा मे आत्मबोध विस्मृत होता है किन्तु मनोनिरोध की अवस्था ४४ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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