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________________ मूलबन्ध सहित अनुलोम-विलोम प्राणायाम के साथ उड्डीयान बन्ध और जुड़ जाता है। I श्वास के दोष विपम और ह्रस्व श्वास से उत्पन्न होते हैं और वे मन को चचल वनाते है । मन की स्थिरता के लिए श्वास को विशुद्ध बनाना नितांत आवश्यक है | साधना की भाषा मे जैसा कि मै समझ पाया हू श्वास और मन का गहरा सम्बन्ध है । श्वास की चचलता मन की चंचलता को जन्म देती है और मन की चचलता फिर श्वास को चचल बनाती है । इस क्रम मे स्थिरता कम होती चली जाती है । अतः मन की शुद्धि के लिए श्वास की शुद्धि बहुत आवश्यक है । प्राणायाम का क्रमिक विकास - प्रारम्भ मे प्राणायाम के दो अगो-पूरक और रेचक का ही अभ्यास करना चाहिए । सोमदेव सूरि ने लिखा हैमन्दं मन्द क्षिपेद् वायु, मन्दं मन्दं विनिक्षिपेत् । न क्वचिद् वार्यते वायुर्न च शीघ्र प्रमुच्यते ॥ ( यशस्तिलक, ३६) प्राणवायु को धीमे-धीमे लेना चाहिए और धीमे-धीमे छोड़ना चाहिए । वायु को न रोका जाए और न शीघ्रता से छोडा जाए। प्रारम्भ मे प्राण को रोकने का अभ्यास होता है, इसलिए उसे रोक लेने पर शीघ्रता से छोड़ने की स्थिति पैदा हो जाती है। वैसा करने मे हानि होती है । प्रारम्भ मे दीर्घ श्वास का अभ्यास, फिर पूरक और रेचक का अभ्यास और फिर कुम्भक का अभ्यास - यह प्राणायाम का विकासक्रम है। हठयोग में प्राणायाम के अनेक प्रकार बतलाये गए है । शारीरिक सिद्धियो के लिए उनका उपयोग भी हो सकता है किन्तु ध्यान की सिद्धि के लिए उनका उपयोग हमारे अनुभव मे नहीं है। ध्यान की सिद्धि के लिए उसी प्राणायाम का उपयोग होता है, जिससे प्राण सूक्ष्म बन सके। नाभि, नासाग्र, भृकुटि और मस्तिष्क मे मन को केन्द्रित करने से प्राण सूक्ष्म हो जाता है । कुम्भक करने से तो वह सूक्ष्म होता ही है । रेचक और पूरक का सम्यक् अभ्यास हो जाने के बाद पांच-दस सेकण्ड का कुम्भक किया जाए और वह भी चार-पांच बार । फिर धीमे-धीमे समय और बार दोनो बढाए जा सकते है । जिसे मन को स्थिर करने की सामान्य अपेक्षा हो, वह दो-तीन मिनट मनोनुशासनम् / १६
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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