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________________ उसके ज्ञान प्रकोष्ठ क्रियाशील हो जाते है, मन का मुख्य केन्द्र यह वृहन्मस्तिष्क है। कुछ आचार्य मन का स्थान हृदय को मानते है और कुछ आचार्य उसे समूचे शरीर मे व्याप्त मानते है । उसका कोई निश्चित स्थान नही मानते। उनका मत है कि जहा श्वास है, वहा मन है और जहा मन है वहा श्वास है। ये दोनो दूध और पानी की भाति परस्पर मिले हुए है -- । मनो यत्र मरुत् तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः अतस्तुल्यक्रियावेतौ, सवीती क्षीरनीरवत् ॥ (योगशास्त्र ५ / २ ) मन समूचे शरीर में व्याप्त है । इसका अर्थ यह नही होना चाहिए कि मानसिक क्रिया के प्रयोजक केन्द्र सारे शरीर मे है । सवेदनावाही और ज्ञानवाही स्नायु समूचे शरीर में है । वे मस्तिष्क से सम्बद्ध है, इसलिए मानसिक व्यापार समूचे शरीर मे सम्प्रेपित होता है, किन्तु उसका केन्द्र स्थान समूचा शरीर नही है । प्रश्न- क्या मस्तिष्क की क्रिया ही मन नही है ? उत्तर - मस्तिष्क की क्रिया मन का एक भाग है किन्तु केवल वही मन नही है । प्रश्न- क्या मस्तिष्क के विना मानसिक क्रिया होती है ? उत्तर - आख के गोले के विना कोई देख नही सकता, फिर भी उस गोलक की क्रिया को ही देखने की क्रिया नही कहा जा सकता। वैसे ही मस्तिष्क के विना मनन की क्रिया नही होती, फिर भी मस्तिष्क ही मन नहीं है । आख का गोला देखने मे सहयोग करता है, वैसे ही मस्तिष्क मनन में सहायक है । चैतन्य का विकास और मस्तिष्क - रचना दोनो के समुचित योग से ही मानसिक क्रिया निप्पन्न होती है। साधना के लिए इन्द्रियो और मन की क्रिया और प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है। बाह्य जगत् के साथ हमारा सम्पर्क इन्द्रियो और मन के माध्यम से होता है। दृश्य जगत् को हम आखों से देखते है, श्रव्य जगत् को हम कानो से सुनते है, गन्धवान जगत् को हम सूघते है, रसनीय जगत् का हम रस लेते है और स्पृश्य जगत् का हम स्पर्श करते है । रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श का अस्तित्व इन्द्रियों के लिए नही है फिर भी उनमे मनोनुशासनम् / ५ .
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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