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________________ रूप-आकार, वर्ण। रूपस्थ ध्यान-आकार के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता। रूपातीत-निराकार। रूपातीत ध्यान-निराकार के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता। रेचक-श्वास को वाहर निकालना। लब्धि-योगज विभूति, प्राप्ति । लाघव-हल्कापन। लिंग-चिह्न, जननेन्द्रिय। लेश्या-पुद्गल द्रव्यो के निमित्त से होने वाला आत्मपरिणाम। लोकसस्थान-लोक का आकार । वस्ति-जननेन्द्रिय। वाक्-वाणी। विकरण-विकृति। विकर्षण-दूर करना। विक्षिप्त-चंचल। विरति-पदार्थ की आकाक्षा का विसर्जन । विविक्तवास-एकान्तवास । वीतरागता-राग-द्वेप-विजेता। वीर्य-शक्ति। वैराग्य-विरक्ति। व्याधि-रोग। व्युत्सर्ग-शरीर, कषाय आदि का विसर्जन। शयनस्थान-लेटकर किए जाने वाले आसन। शिथिलीकरण-शरीर को ढीला छोड़ना। शुक्र-वीर्य। शौच-अलुब्धता। श्रोत्र-शब्द-ग्राहक इन्द्रिय। श्लिष्ट-स्थिर। सतति-प्रवाह। संधान-जुडना। मनोनुशासनम् / २०५
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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