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________________ कि शरीर मलिन है और इस शरीर मे विराजमान आत्मा निर्मल है। शरीर अनित्य है और आत्मा नित्य है। जिस प्रकार पानी मे गिरा हुआ तेल पानी से पृथक् रहता है उसी प्रकार आत्मा शरीर में रहती हुई शरीर से पृथक् रहती है। मथन के द्वारा दधि से घृत को अलग किया जा सकता है। वैसे ही शरीर से आत्मा को पृथक् किया जा सकता है। पुष्प और उसकी सुगन्ध, वृक्ष और उसकी छाया मे जो स्थूल और सूक्ष्म का सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध देह और आत्मा मे है साकार नश्वर सर्वमनाकार न दृश्यते। पक्षद्वयविनिर्मुक्त कथ ध्यायन्ति योगिनः॥ अत्यन्तमलिनो देहः पुमानत्यन्तनिर्मल । देहादेन पृथक् कृत्वा तस्मान्नित्य विचिन्तयेत्॥ तोयमध्ये यथा तैल पृथग्भावेन तिष्ठति। तथा शरीरमध्येऽस्मिन् पुमानास्ते पृथक्तया॥ दन सर्पिरिवात्मायमुपायेन शरीरतः। पृथक् क्रियते तत्त्वज्ञैश्चिर ससर्गवानपि॥ पुष्पामोदौ तरुच्छाये यद्वत्सकलनिष्कले। तद्वत्तौ देहदेहस्थौ यद् वा लपनबिम्बवत्।। जो साधक कायोत्सर्ग मुद्रा मे देह का पूर्णतः शिथिलीकरण कर भेदज्ञान की भावना करता है, वह शारीरिक और मानसिक दोनो प्रकार के स्वास्थ्य, अनासक्ति तथा मानसिक एकाग्रता को प्राप्त करता है। :४: ॐकार के ध्यान का अभ्यास स्थिर और शान्त होकर बैठ जाइए। फिर नासिका के अग्र भाग पर 'ॐ' का ध्यान कीजिए। चित्त को भृकुटि के मध्य मे (आज्ञाचक्र पर) स्थापित कीजिए। यह ध्यान का सहज-सरल उपाय है। इससे आन्तरिक ज्ञान विकसित होता है, अन्तर्मन जागृत होता है। १६६ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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