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________________ मे स्थित हो जाता है । 'सोऽह' के जप का यही मर्म है।' अर्हम्' की भावना करने वाले मे 'अर्हत्' होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कोई व्यक्ति भक्ति से भावित होता है, कोई ब्रह्मचर्य से और कोई सत्संग से अनेक व्यक्ति नाना भावनाओ से भावित होते है । जो किसी भी कुशल कर्म से अपने को भावित करता है, उसकी भावना उसे लक्ष्य की ओर ले जाती है। I भगवान् महावीर ने भावना को नौका के समान कहा है। नौका यात्री को तीर तक ले जाती है । उसी प्रकार भावना भी साधक को दुख के पार पहुचा देती है । ३ प्रतिपक्ष की भावना से स्वभाव, व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है। मोह कर्म के विपाक पर प्रतिपक्ष भावना का निश्चित परिणाम होता है । उपशम की भावना से क्रोध, मृदुता की भावना से अभिमान, ऋजुता की भावना से माया और संतोष की भावना से लोभ को बदला जा सकता है । राग और द्वेष का सस्कार चेतना की मूर्च्छा से होता है और वह मूर्च्छा चेतना के प्रति जागरूकता लाकर तोड़ी जा सकती है । प्रतिपक्ष भावना चेतना की जागृति का उपक्रम है, इसलिए उसका निश्चित परिणाम होता है । साधनाकाल मे ध्यान के बाद स्वाध्याय और स्वाध्याय के बाद फिर ध्यान करना चाहिए | स्वाध्याय की सीमा मे जप, भावना और अनुप्रेक्षा- इन सबका समावेश होता है । यथासमय और यथाशक्ति इन सबका प्रयोग आवश्यक है। ध्यान शतक में बताया गया है कि ध्यान को समाप्त कर अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओ का अभ्यास करना चाहिए ।" ध्यान मे होने वाले १ समाधितत्र, श्लोक २८ - सोहमित्यात्त सस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन | तत्रैव दृढसस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ॥ २ पासनाहचरिअ, पृ. ४३० जो जेण चित्र कुसलेणा, कम्मुण केणइ ह नियमेण । भाविज्जइ सा तस्सेव, भावना धम्मसजणणी ॥ 3 सूयगडो, १५/५ भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । णावा व तीरसपण्णा, सव्वदुक्खा तिउट्टति ॥ ध्यानशतक, श्लोक ६५ झाणोवरमेव मुणी णिच्चमणिच्चाईचितणोवरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्वि ॥ १८८ / मनोनुशासनम् ४
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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