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________________ प्रियता और अप्रियता के भाव से जानना संवेदन है। हम पदार्थ को या तो प्रियता की दृष्टि से देखते है या अप्रियता की दृष्टि से। पदार्य को केवल पदार्थ की दृष्टि से नही देख पाते। पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से देखना ही समता है। वह केवल जानने और देखने से सिद्ध होती है। यह भी कहा जा सकता है कि केवल जानना ओर देखना ही समता है। जिसे समता प्राप्त होती है, वही ज्ञानी होता है। जो ज्ञानी होता है, उमी को समता प्राप्त होती है। ज्ञानी और साम्ययोगी-टोनों एकार्यक होते हैं। __ हम इन्द्रियो के द्वारा देखते है, सुनते हे, सूघते है, चखते है, स्पर्श का अनुभव करते है तथा मन के द्वारा सकल्प-विकल्प या विचार करते हे । प्रिय लगने वाले इन्द्रिय-विपय और मनोभाव राग उत्पन्न करते है और अप्रिय लगने वाले इन्द्रियविपय और मनोभाव द्वेष उत्पन्न करते है। जो प्रिय और अप्रिय लगने वाले विषयो और मनोभावो के प्रति सम होता है, उसके अन्तःकरण मे वे प्रियता और अप्रियता का भाव उत्पन्न नहीं करते। प्रिय और अप्रिय तथा राग और द्वेप से परे वही हो सकता है, जो केवल ज्ञाता और द्रप्टा होता है। जो केवल ज्ञाता और द्रष्टा होता है, वहीं वीतराग होता है। जैसे-जैसे हमारा जानने और देखने का अभ्यास वढ़ता जाता है, वैसे-वैसे इन्द्रिय-विषय और मनोभाव, प्रियता और अप्रियता उत्पन्न करना वन्द कर देते है। फलत राग ओर द्वेप शान्त और क्षीण होने लगते है। हमारी जानने और देखने की शक्ति अधिक प्रस्फुट हो जाती है। मन मे कोई सकल्प उठे, उसे हम देखे। विचार का प्रवाह चल रहा हो उसे हम देखे। इसे देखने का अर्थ होता है कि हम अपने अस्तित्व को सकल्प से भिन्न देख लेते है। संकल्प दृश्य है और 'मै द्रष्टा हूं-इस भेद का स्पष्ट अनुभव हो जाता है। जब सकल्प के प्रवाह को देखते जाते है, तव धीमे-धीमे उसका प्रवाह रुक जाता है। सकल्प के प्रवाह को देखते-देखते हमारी दर्शन की शक्ति इतनी पटु हो जाती है कि हम दूसरो के सकल्प-प्रवाह को भी देखने लग जाते है। हमारी आत्मा मे अखण्ड चैतन्य है। उसमें जानने-देखने की असीम शक्ति है, फिर भी हम बहुत सीमित जानते-देखते है। इसका कारण यह है कि हमारा ज्ञान आवृत है, हमारा दर्शन आवृत है। इस आवरण की सृष्टि मोह ने की है। मोह को राग और द्वेष का पोषण मिल रहा है-प्रियता १८४ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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