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________________ धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे वढता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है। स्थूल शरीर के वर्तमान क्षण को देखने वाला जागरूक हो जाता है। कोई क्षण सुख-रूप होता है और कोई क्षण दुःख-रूप। क्षण को देखने वाला सुखात्मक क्षण के प्रति राग नही करता और दुःखात्मक क्षण के प्रति द्वेप नहीं करता। वह केवल देखता और जानता है।' शरीर की प्रेक्षा करने वाला शरीर के भीतर से भीतर पहुचकर शरीर-धातुओ को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतो (अन्तरों) को भी देखता है। __ देखने का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसका महत्त्व तभी अनुभूत होता है, जव मन की स्थिरता, दृढ़ता और स्पष्टता से दृश्य को देखा जाए। शरीर के प्रकम्पनो को देखना, उसके भीतर प्रवेश कर भीतरी प्रकम्पनो को देखना, मन को बाहर से भीतर मे ले जाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से मूर्छा टूटती है और सुप्त चैतन्य जागृत होता है। शरीर का जितना आयतन है, उतना ही आत्मा का आयतन है। जितना आत्मा का आयतन है, उतना ही चेतना का आयतन है। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के कण-कण मे चैतन्य व्याप्त है। इसीलिए शरीर के प्रत्येक कण मे सवेदन होता है। उस सवेदन से मनुप्य अपने स्वरूप को देखता है, अपने अस्तित्व को जानता है और अपने स्वभाव का अनुभव करता है। शरीर मे होने वाले सवेदन को देखना चैतन्य को देखना है, उसके माध्यम से आत्मा को देखना है। १ आयारो, ५/२१ जे इमस्स विग्गहस्स अय खणेत्ति मन्नेसी। वृत्ति पत्र १८५ वाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रह . -औदारिक शरीर, तस्य अय वर्तमानिकक्षण एवभूत सुखदु खान्यतरूपश्च गत एव-भूतश्च भावीत्येव यक्षणान्वेपणशील सोऽन्वेषी सदाऽप्रमत्त. स्यादिति। आयारो, २/१३० अतो अतो देहतराणि पासति पुढोवि सवताइ। वृहद् नयचक्र, ३८५, ३८६ आदा तणुप्पमाणो णाण खलु होई तप्पमाण तु। त सवेयणरूव तेण हु अणुहवई तत्येवा। पस्सदि तेण सरूव जाणइ तेणेव अप्पसदभाव। अणुहवइ तेण रूव अप्पा णाणप्पमाणादो। मनोनुशासनम् १८१ my
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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