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________________ अवयव उचित सामग्री के अभाव अपना काम करने में अक्षम रह जाते । हैं। फलतः सर्व धातुओं और सर्वाग पर होने वाले अन्तःस्राव के महत्त्वपूर्ण प्रभावो से वचित रह जाता है और अनेक प्रकार के विकार उसके शरीर मे उत्पन्न होते हैं। आयुर्वेद के ग्रथो में इस विपय को एक उदाहरण के द्वारा समझाया गग है। सात क्यारियो मे सातवी क्यारी मे बडा गर्त हो या उसमे से जल निकलने के लिए छेद हो तो सीधी-सी बात है कि पहले सम्पूर्ण जल उस गड्ढे मे भरने लगेगा या उस क्यारी को पूर्ण करने मे व्यय होगा। यही स्थिति अति-मैथुन आदि के कारण होने वाले शुक्रक्षय मे होती है। निश्चित ही सम्पूर्ण रस प्रथम शुक्र-धातु की पुष्टि मे लगता है किन्तु अति मैथुनवश शुक्र पुष्ट हो ही नहीं पाता। परिणामतया अन्य वस्तुओ की पुष्टि रस से हो नहीं पाती और शरीर मे विभिन्न विकार उत्पन्न हो जाते ब्रह्मचर्य से इन्द्रिय-विजय और इन्द्रिय-विजय से ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। वस्तुत इन्द्रिय-विजय और ब्रह्मचर्य दो नही है। ब्रह्मचर्य की इन्द्रिय-विजय से एकात्मकता है, इसलिए उससे शरीर की स्थिरता, मन की स्थिरता और अनुद्विग्नता, अदम्य उत्साह, प्रवल सहिष्णुता, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित होते है। ब्रह्मचर्य से हमारे स्थूल अवयव उतने प्रभावित नहीं होते, जितने सूक्ष्म अवयव होते है। कुछ लोगो का मत है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य का शरीर और मन पर अनुकूल प्रभाव नहीं होता। इस मत में सचाई का अश भी है पर उसी स्थिति मे जव ब्रह्मचर्य का पालन केवल विवशता की परिस्थिति मे हो। चिन्तन के प्रवाह को काम-वासना की लहरों से मोडकर अन्य उदात्त भावनाओ की ओर ले जाया जाए तो ब्रह्मचर्य स्ववशता की परिस्थिति मे विकास पाता है। उसका शरीर और मन की सूक्ष्मतम स्थितियों पर बडा लाभदायी प्रभाव पड़ता है। बहुत सारे लोग ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते है, फिर भी नहीं कर पाते। ऐसा क्यो होता है ? अब्रह्मचर्य की भावना सहज ही क्यो उभर आती है ? इस प्रश्न का उत्तर कर्मशास्त्रीय भाषा में यह है कि यह सब मनोनुशासनम् / १४५
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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