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________________ वायु प्राण का अर्थ है-जीवनी-शक्ति। उसके दस प्रकार है . १. स्पर्शनेन्द्रिय प्राण ६. मनोवल प्राण २. रसनेन्द्रिय प्राण ७. वचनवल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय प्राण ८. कायबल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय प्राण ६. श्वासोच्छ्वास प्राण ५ श्रोत्रेन्द्रिय प्राण १० आयुष्य प्राण इस शक्ति के द्वारा ही प्राणी जीवन को धारण करता है। इसके मूल मे चैतन्य और पुद्गल दोनो क्रियाशील रहते है। इस प्राणशक्ति को वायु के द्वारा गति मिलती है। इसलिए उसे (वायु को) स्थूल प्राण कहा जाता है। शरीरगत वायु के मुख्य पाच प्रकार है : १ प्राण २. अपान ३. समान ४. उदान ५. व्यान इनके स्थान, गति, कार्य, परिणाम व वर्ण इस प्रकार है प्राण-इसका स्थान मस्तक है, गतिस्थल छाती व कण्ठ है। इसके कार्य बुद्धि, हृदय, इन्द्रिय और मन को धारण करना तथा थूकना, छीक, डकार, नि श्वास और अन्नप्रवेश है। यह रुक्षता, व्यायाम, लघन, चोट, यात्रा तथा वेगनिरोध से विकृत होती है, जिसके परिणाम चक्षु आदि इन्द्रियो का विनाश, अर्दित, प्यास, कास, श्वास आदि रोगो की उत्पत्ति है। इसमे वायु तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्ण नील होता है। अपान-इसका स्थान गुदास्थल है तथा कार्यक्षेत्र श्रोणि, वस्ति है। इसका कार्य वीर्य, रज, मल-मूत्र को बाहर निकालना है। विकृति, रुक्ष तथा भारी अन्न सेवन से, वेगो को रोकने या अति प्रवृत्ति करने से, अति वैठने, खडे होने या चलने से होती है। इसके परिणाम है-पक्वाशयगत कष्ट-साध्य रोगो, मूत्र एव वीर्य के रोगो, अर्श, गुट-भ्रश आदि रोगो की उत्पत्ति। इसमे पार्थिव तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्ण श्याम मनोनुशासनम् / १२३
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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