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________________ हमारी चेतना बाह्य वस्तुओ से विरत हो जाती है और चित्त एकाग्र हो जाता है। हम सूचनात्मक ज्ञान का सकलन करे या न करे, यह यहा प्रासगिक नही है। हम अपने अन्तश्चैतन्य को जागृत करे और उससे जो श्रुत (ज्ञान) की धारा प्रवाहित हो, उसका उपयोग करे। चित्त अपने आप समाहित होगा। चेतना और शरीर -ये दोनो परस्पर मिले हुए है। स्थूल शरीर वदलता रहता है किन्तु सूक्ष्म शरीर और चेतना-ये दोनो धाराप्रवाह रूप मे जुड़े रहते है। चेतना के द्वारा शरीर को ज्ञान का आलोक और शक्ति प्राप्त होती है। शरीर के द्वारा चेतना को अभिव्यक्ति मिलती है और शक्ति के प्रयोग का क्षेत्र मिलता है। दोनो पारस्परिक सहयोग के कारण अभिन्न जैसे प्रतीत होते है। यह अभेट वोध की चेतना के शरीर निरपेक्ष विकास मे अवरोध पैदा करता है। इस अभेद बोध की परिस्थिति मे राग और द्वेप पनपते है। उनके सस्कार चित्त को चचल वनाए रहते है। उस चंचलता को मिटाने का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-भेद-विज्ञान-चेतना और शरीर मे भिन्नता का वोध। शरीर और चेतना भिन्न है-यह हमने सुना या पढा। हमे वोध हो गया कि शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है इसलिए वे दोनो भिन्न है। यह वोध केवल श्रुति-वोध है। इस वोध को हम साधना का आदि विन्दु वना सकते है किन्तु इसे निप्पत्ति नही मान सकते। इस श्रुति-वोध को स्वयं का बोध वनाने के लिए दो प्रयोग किए जाते है-एक तप का और दूसरा चरित्र का। हम कम खाते है या कुछ दिनो तक नही खाते। शरीर के लिए खाना जरूरी है और हम नही खाकर उसके नियम का अतिक्रमण करते है। उस अतिक्रमण का शरीर विरोध करता है। उस विरोध के काल मे यदि हम भेद-ज्ञान का अनुभव कर चेतना को मुख्यता देते हैं तो भेट-विज्ञान अभ्यास के स्तर पर आ जाता है। हम आसन साधते है। शरीर की माग नहीं है कि हम दो या तीन घटे एक आसन मे वैठे रहे। हम ध्यान करते है। वाह्य वातावरण से हट जाते है और ज्ञात विपयो की विस्मृति हो जाती है। हम आने वाली हर कठिनाई को हसते-हसते झेल लेते है। ये सब तप और चारित्र के प्रयोग भेट-विज्ञान के प्रयोग है। इनके द्वारा हमारा भेद-विज्ञान पुष्ट होता है। हम इस बिन्दु ११६ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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