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________________ और वे आलम्वन के वर्गीकरण के आधार पर निर्धारित की गई है। आलम्वन चार रूपो मे वर्गीकृत है : १ पिण्ड (शरीर) ३ रूप (आकार) २ पद (शब्द) ४ रूपातीत (निराकार) इनके आधार पर एकाग्रतात्मक ध्यान के चार प्रकार बन जाते हैं : १. पिण्डस्थ-पिण्ड के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता। २ पदस्थ-पद के आलम्वन से होनी वाली एकाग्रता। ३. रूपस्थ-रूप के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता। ४ रूपातीत-अरूप के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता। पिण्डस्थ ध्यान पिण्डस्थ ध्यान मे शरीर का आलम्बन लिया जाता है। आत्मा और शरीर मे एकत्व नही है, किन्तु उनका संयोग है। आत्मा चेतन है और शरीर अचेतन। अत आत्मा और शरीर स्वरूप की दृष्टि से भिन्न है। शरीर आत्मा की अभिव्यक्ति और प्रवृत्ति मे सहयोग करता है, इसलिए उसमें सर्वथा भेद भी नही है। इस दृष्टि से सशरीर आत्मा न केवल चेतन और न केवल अचेतन है, किन्तु जात्यान्तर है-चेतन और अचेतन का सयोग है। प्राणशक्ति, भाषा, इन्द्रिय और चिन्तन-ये न चेतन के लक्षण है और न अचेतन के लक्षण है किन्तु चेतन और अचेतन की समन्वित अवस्था के लक्षण है। आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति और शरीर का पौद्गलिक सहयोग, ये दोनों मिलकर सशरीर आत्मा के अस्तित्व को प्रकट करते हैं। शरीर के पाच प्रकार है : औदारिक-यह अस्थि-मासमय स्थूल शरीर है। वैक्रिय-यह अस्थि-मांसरहित स्थूल शरीर है। यह योगी के भी हो सकता है। आहारक-यह योगज शरीर है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान मे प्रेपित किया जा सकता है। तैजस-यह विद्युत् शरीर है। कार्मण-यह मूल शरीर या संस्कार शरीर है। १०२ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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