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________________ वीतराग स्वरूप की अनुभूति करनी चाहिए। अनुभूति को पुष्ट करते-करते चित्त उसी मे विलीन हो जाना चाहिए। यह पार्थिवी धारणा है। १६ नाभिकमल प्रज्वलित होने के कारण सब दोष दग्ध हो रहे है-इस अनुभूति को आग्नेयी धारणा कहा जाता है। नाभिकमल स्थित त्रिकोण अग्निकुण्ड मे अग्नि प्रज्वलित हो रही है, उससे सारे दोप भस्म हो रहे है -ऐसी धारणा करते-करते चित्त उसमे लीन हो जाना चाहिए। २० नाभिकमल मे दोपो के चलने से जो भस्म होती है, उसे तेज वायु का झोका उडाकर ले जा रहा है-ऐसा चिन्तन करना मारुती धारणा है। २१ शेष भस्म का प्रक्षालन करने के लिए विशाल मेघराशि की अनुभूति करने को वारुणी धारणा कहा जाता है। २२ ॐ, ही, ह, णमो अरहताण, अ सि आ उ सा आदि शब्द-मत्रो, श्रुत (शब्दो या नामों) का आलम्बन ले जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहा जाता है। २३ जिस ध्यान मे सस्थान (आकृति विशेप) का आलम्बन लिया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान कहलाता है। २४ सर्वमलातीत ज्योतिर्मय आत्मा के अमूर्त स्वरूप का आलम्वन लेने को रूपातीत ध्यान कहा जाता है। २५ ध्यान के प्रारम्भ मे स्वाध्याय होता है, चिन्तन होता है, फिर भी ध्यान और स्वाध्याय एक नही है। स्वाध्याय मे विषय की तन्मयता नही होती, समरसीभाव नहीं होता। ध्यान मे तन्मयता होती है, समरसीभाव होता है। ध्यान करने वाला चिन्तन करते-करते उसमे लीन हो जाता है, तन्मय हो जाता है। यह तन्मयता या लय ही ध्यान है। इस दशा मे ध्येय और ध्याता मे अभेद हो जाता है। परमात्मा के ज्योतिर्मय या आनन्दमय स्वरूप में लीन होकर ध्याता स्वयं वैसा बन जाता है। जान १०० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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